उन्मादी चंचल मन मेरे…
उन्मादी चंचल मन मेरे…
अपनी ही पीड़ा पर गाते,
नयन तुम्हारे क्यों भर आते.
अंधियारे उपहार मिले हैं,
मुझको कुछ शापों के चलते..
सूने सब त्यौहार मिले हैं,
मेरे ही पापों के चलते….
मै जो कांटा बन बैठी हूं…
तुम क्यूं अपने प्राण सुखाते…
नयन तुम्हारे क्यों भर आते….
मिटा सका है कौन जगत में,
किसी और के उर की पीड़ा,
ओट बनाकर के सागर को,
अंचल भी करता है क्रीड़ा…
दीप जलाती है जो वायु,
कर देने को झिलमिल रातें,
पल में रूप बदल झंझा का
हंस हंस करती तम से बाते…
तिमिर घोर नियति यह मेरी…
क्यूं तुम अपना तेज लुटाते…
नयन तुम्हारे क्यों भर आते….
©Priya maithil