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23 Jun 2019 · 1 min read

उधेड़बुन

अंतरदवंध है क्यों प्रबल..
मरीचिका है क्यों सबल..
खुद ही मैं रथी..
मैं ही आप,क्यों हूँ सारथी..
और उस पर समय की ये गति..
भीड़ के आगोश में..
अपने को क्यों अकेला पाता हूँ…
जीवन की इस पगडण्डी पर..
ये लकीर कौन बना गया..
कोई और भी गुज़रा यहाँ से..
या मैं ही बार बार आता हूँ..

क्यों सजी ये दिशाये..
अविरल हैं क्यों ये हवाएं..
देखता क्यों हूँ चारों और..
अपने ही ये प्रश्न चिन्ह..
तलाशता क्यों हर तरफ..
अपने ही ये पद चिन्ह…
ये कौन है?
जो अनदेखा है..
मैं ही हूँ..की मैं नहीं..
हर बार मैं ही चुनता हूँ राह अपनी…
पर हर मोड़ के बाद..
फिर मैं रुक सा जाता क्यों हूं…

Language: Hindi
1 Like · 1 Comment · 496 Views
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