उद्ग़ार
विकल मन क्यों हो रहा बेचैन ।
क्यों होती हलचल मन सागर में भरती अश्रु से नैन।
उठती क्यों लहरें जैसे बाढ़ से नदी उफनती है।
क्यों गूंज रहे वे शब्द बाण बेधकर इस ह्रदय पट को। जैसे आवाज़ दी हो किसी ने नीरव शांत तट पर किसी को ।
गुबार भावनाओं के उठते अटकते पर थमते नही।
वेदना के स्वर भटकते अंतःकरण में आर्त़नाद बनते नहीं ।
सोचता हूंँ हो जाऊँ निष्पंद जड़ होकर ।
या फिर बन पाऊँ पाषाण यह प्रण लेकर ।
या फिर सो जाऊँ चिरनिद्रा में लिए भाव निर्विकार ।या झुठला दूँ इस समय चक्र को लेकर
मानव अधिकार ।
बन जाऊँ मैं दावानल नष्ट करूँ यह द्वेष, स्वार्थ,
और अनाचार ।
और अंकुरित करुँ प्रेम उपवन में सत्य , अहिंसा ,और सदाचार ।