उद्धरण
बंट गई जिंदगी…..
जिंदगी को कभी टुकड़ों में बाँट कर देखा है। नहीं किसी ने भी नहीं… यही जबाब होगा न इसका।
दोस्तो इसको कोई अपने आप बाँटे या न बाँटे लेकिन जिंदगी अपने प्रत्येक हिस्से को खण्ड खण्ड में बाँटके हमेशा चलती है। जन्म से लेकर 5 सालों तक हर व्यक्ति अपनी उम्र के हिसाब से पैदा हुई परेशानियों को झेलता हुआ उनसे निजात पता हुआ ही बड़ा हो जाता है।….फिर शुरू होता है उम्र का स्कूली शिक्षा का दौर जो टीनएजर की गलियों से गुजरते हुए,उम्र की उड़ानों ,सपनों के हिंडोलों, रंगीन आशाओं को लिए युवावस्था में प्रवेश कर जाता है। यह उम्र के 20 या 25 वर्ष तक का पड़ाव है। अब इसके बाद आता है दौर कमाने का,शादी,बच्चे,पालन पोषण,पढ़ाई लिखाई,शादी विवाह,…..
लो जी हो गए 55 वर्ष। जब 55 वर्ष हो गए तो पीछे मुड़कर देखा तो उम्र तो टुकड़ों में बंट कर छिन्नभिन्न हो चुकी थी। जिंदगी का एक कीमती हिस्सा इसी उलझन में गुजर चुका था।शेष बची कुछ जिंदगी जिसको बस बीते लम्हों व आगे के आने वाले सम्भावित क्षणों को बहुत ही सँभालते, पालते पूरी।25 सालों का तो कोई लेखा जोखा ही नहीं किसी के पास हिसाब नहीं। यूँ ही गुज़र गई जिंदगी।
प्रवीणा त्रिवेदी “प्रज्ञा”
नई दिल्ली 74