उदास रातें बुझे- बुझे दिन न खुशनुमा ज़िन्दगी रही है
उदास रातें बुझे- बुझे दिन न खुशनुमा ज़िन्दगी रही है
कुचक्र प्रारब्ध का चला यूँ सुखों की दीवार ढह गयी है
बने रहे ढाल अपनों की हम, न खुद की खातिर जिए ज़रा भी
मगर हमेशा सभी को आती नज़र हमारी ही बस कमी है
न तो ज़रूरत रही हमारी, न हैं बुढ़ापे में काम के हम
न आज देने को कुछ बचा है मगर उमर तो अभी बची है
बहाए हैं अश्क हमने हरदम न पीर फिर भी हुई ज़रा कम
लगे हुए ज़ख़्म इतने दिल पर दवा कोई भी नहीं मिली है
सुना नहीं सकते हैं किसी को भी राज़ हम अपनी ज़िन्दगी के
दिखें भले मुस्कुराते सबको मगर नयन में नमी बसी है
समय बदलता रहे हमेशा यही नियम तो है ज़िन्दगी का
सुबह सुनहरी अभी -अभी तो नयी- नयी साँझ में ढली है
व्यथित ह्रदय की व्यथा यही ‘अर्चना’ न रुकती हैं धड़कनें ये
बता नहीं सकते हम किसीको कि कितनी मुश्किल हरिक घड़ी है
डॉ अर्चना गुप्ता