उदास पनघट
उदास पनघट (कविता)
************
छुपा कर दर्द सीने में नदी प्यासी बहे जाती।
बसा कर ख्वाब आँखों में परिंदे सी उड़े जाती।
निरखते बाँह फैलाकर किनारे प्यार से इसको-
समेटे प्यास अधरों पर नदी पीड़ा सहे जाती।
थका जब प्यास से तड़पा मुसाफ़िर पीर तन लाया।
मिटाई प्यास अधरों की सरित का नीर मन भाया।
किया नापाक जल मेरा बुझा तृष्णा जगत पाई-
रुलाता मेघ तरसाता नहीं अब तीर घन छाया।
घिरे पनघट उदासी में झुलसते गीत बिन सावन।
तप रही देह आतप से रुआँसी प्रीत बिन साजन।
कृषक प्यासा तके अंबर पड़े खलिहान सूखे हैं-
हुआ सूना जहाँ देखो सजे ना मीत बिन आँगन।
अकेली साथ को तरसे पड़े छाले निगाहों में।
नहीं घूँघट गिरा गोरी लजाती आज बाहों में।
खनकती चूड़ियों में राग भरती मटकियाँ सूनी-
मरुस्थल बन गया जीवन बिछे हैं शूल राहों में।
स्वरचित/मौलिक
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी (उ. प्र.)
मैं डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना” यह प्रमाणित करती हूँ कि” उदास पनघट” कविता मेरा स्वरचित मौलिक सृजन है। इसके लिए मैं हर तरह से प्रतिबद्ध हूँ।