उत्पीड़न
मैंने वक्त की दीवारों से कुछ पूछा है,
के अतीत के दरमियान क्या क्या रखा है।
आज कटघरे मे उस घर की बात है
जिसके हर ईंट पर कसीदा लिखा है।।
मैंने कहा-
आज इन चार दीवारी से बात करनी है
इनके आसरे दबी आवाज सुननी है
कि देखते हो कितना कुछ मगर फिर भी कमाल है
खड़े हो ज्यों के त्यों
ना कोई लचक, ना कोई सवाल है
ऐसा लगता है कि ये दीवारें सब कुछ छुपाती है
लेकिन कुछ आवाजें घर घर चींख जाती है
इतना सुन दीवारें कहती है-
बिल्कुल,
उस घर का दृश्य ऐसा है कि मानो तबाही हुई हो
एक के बाद एक जैसे गवाही हुई हो
कोई अपना बल दिखता स्वाभिमान पर
अभिमान भीग जाता है टूटते आशियान पर
वो जालिम मुँह दबोचते, हाथ उठाते
बाहों को मरोड़ते और कुछ कुछ कह जाते
वो सभी जुर्म करते रहे मेरे सामने
सोचता हूँ आवाजें दबा लूँ किसी और बहाने
लेकिन किसी की वेदना छुपे छुपायी नहीं जाती
कोई पूछे तो बदहाली बतायी नही जाती
कभी कभार देखा है
वो छुप छुपकर कहती जो अन्तर्वेदना है
यकीन नही होता
जो रहती हो ऐसे सामने मुख सलोना है
हाँ, सुनते तो है सभी लेकिन कौन खटखटाने जाए
सबकी अपनी जिंदगी है, सब अपनी चौखट बचाए
लेकिन मिल जाता है
कभी कोई सहयोगी मददगार जैसा
पर इतना भी काफी नही………
जब उत्पीड़न हो बारंबार जैसा
शिवम राव मणि