उठो पार्थ गाण्डीव सम्हालो
हर मन हुआ अधर्मी है फिर, हर मानव में दानव है।
उठो पार्थ गांडीव सम्हालो।।
सभी हाथ दु:शासन के हैं, सभी केश पांचाली के।
अब भी झुके हुए सब सर हैं, भीष्म द्रोण बलशाली के।
हर कण में कुरुक्षेत्र बसा है, अब हर क्षण रण की वेला।
द्रौपदियों की राजसभाओं, में संरक्षण की वेला।
पहले एक दरबार में थे बस, अब हर मन में कौरव है।
अब तो तुम द्रौपदी बचालो।।
धारण करो कवच और कुण्डल,धारण किए कर्ण ने जो।
धारण करो सुदर्शन को अब ,यदि तुम शिष्य कृष्ण के हो।
पशुपतास्त्र जिसमें रखा था, उठो सम्हालो तरकश वो।
जिससे जयद्रथ संहारा था, बाण निकालो फिर बस वो।
त्यागो वृथा शोक फिर से तुम, जो भारत का गौरव है।
फिर से वो तूणीर उठालो।।
अब घर – घर में चौसर होता, दुर्योधन से भाई हैं।
अब सब धृतराष्ट्रों ने आंखों, पर पट्टियां चढ़ाई हैं।
जो खुद डसने को बैठे हैं, व्याल वो औरों को कहते।
कपटी जनता के रखवाले, स्वार्थ सिद्धि में रत रहते।
एक – एक शब्द यथार्थ है ये, मेरा अपना अनुभव है।
भारत भारतवर्ष बचा लो।।
© आचार्य विक्रान्त चौहान