उज्जयिनी (उज्जैन) नरेश चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य
विक्रमादित्य का जन्म भगवान् शिव के वरदान से हुआ था। शिव ने उनका नामकरण जन्म से पहले ही कर दिया था, ऐसी मान्यता है। संभवतया इसी कारण विक्रम ने आजीवन अन्याय का पक्ष नहीं लिया। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और श्रीकृष्ण के पश्चात् भारतीय जनता ने जिस शासक को अपने हृदय सिंहासन पर आरुढ़ किया है वह विक्रमादित्य है। उनके आदर्श, न्याय, लोकाराधन की कहानियाँ भारतवर्ष में सर्वत्र प्रचलित है और आबालवृद्ध सभी उनके नाम और यश परिचित है। इन्होने क्रूर और निर्दय शको (तत्कालीन भाषा में विदेशी राजाओं को शक कहा जाता था।) को परास्त करके अपनी विजय के उपलक्ष में संवत का प्रवर्तन किया था।
अपने नाम के अनुसार पराक्रम, साहस और ज्ञान की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं ‘सम्राट विक्रमादित्य’। संवत् अनुसार विक्रमादित्य आज (12 जनवरी 2022) से 2293 वर्ष पूर्व हुए थे। विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरि थे। कलियुग के 3000 वर्ष बीत जाने पर 101 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य का जन्म हुआ। इन्होंने 100 वर्ष तक राज किया। —(गीता प्रेस, गोरखपुर भविष्यपुराण, पृष्ठ 245)
महाराजा विक्रमादित्य का सविस्तार वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। विक्रमादित्य ईसा मसीह के समकालीन थे और उस वक्त उनका शासन अरब तक फैला था। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में भी वर्णन मिलता है। नौ रत्नों की परंपरा इन्हीं से शुरू होती है।
विक्रमादित्य के इतिहास को मुगलों, अंग्रेजों और वामपंथियो ने जान-बूझकर तोड़ा, तथ्यों को मिटाया और भ्रमित किया और उसे एक मिथकीय चरित्र बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी क्योंकि विक्रमादित्य उस काल में महान व्यक्तित्व और शक्ति का प्रतीक थे, जबकि मुगलों और अंग्रेजों को यह सिद्ध करना जरूरी था कि उस काल में दुनिया अज्ञानता में जी रही थी।
विक्रमादित्य भारत की प्राचीन नगरी उज्जयिनी (वर्तमान उज्जैन) के राजसिंहासन पर बैठे। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे, जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था। सम्राट विक्रमादित्य युद्ध-कला एवं शस्त्र-संचालन में निष्णात थे। उनका सम्पूर्ण संघर्षों से भरे अध्यवसायी जीवन विदेशी आक्रान्ताओं, विशेषकर शकों के प्रतिरोध में व्यतीत हुआ। अंततः ईसा पूर्व 56 में उन्होंने शकों को परास्त किया, शकों पर विजय के कारण वे “शकारि” कहलाये। और इस तरह ‘विक्रम-युग’ अथवा ‘विक्रम सम्वत’ की शुरुआत हुई। आज भी भारत और नेपाल की विस्तृत हिन्दू परम्परा में यह पंचांग व्यापक रूप से प्रयुक्त होता है। विक्रमादित्य के शौर्य का वर्णन करते हुए समकालीन अबुलगाजी लिखता है।
“जहाँ परमार विक्रम का दल आक्रमण करता था वहाँ शत्रुओं की लाशों के ढेर लग जाते थे और शत्रुदल मैदान छोड़कर भाग जाते।”
चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य की राजधानी उज्जैन थी । पुराणों एवं अन्य इतिहास ग्रंथों से पता चलता है कि अरब और मिश्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे।
विक्रमादित्य की अरब- विजय का वर्णन कवि जरहम किनतोई की पुस्तक ‘सायर-उल-ओकुल’ में है। तुर्की की इस्ताम्बुल शहर की प्रसिध्द लाइब्रेरी ‘मकतब-ए सुल्तानिया’ में यह ऐतिहासिक ग्रन्थ है। उसमें राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है। जिसमें कहा गया है “वे लोग भाग्यशाली है जो उस समय जन्मे और राजा विक्रम के राज्य में जीवन व्यतीत किया। वह बहुत दयालु, और कर्तव्यनिष्ठ शासक था। जो हर एक व्यक्ति के बारे में सोचता था। उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच में फैलाया। अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फैल सके। इन विद्वानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये विक्रमादित्य के निर्देश पर यहाँ आये।”
यह शिलालेख हजरत मुहम्मद के जन्म के 165 वर्ष पहले का है।
विक्रमादित्य का प्रशस्ति-गान करती दो पुस्तकें आम प्रचलन में हैं-
1.) बेताल पच्चीसी (बेताल पञ्चविंशति) इसमें पच्चीस कहानियाँ हैं। जब विक्रमादित्य विजित बेताल को कंधे पर लाद कर ले जाने लगे तो बेताल उन्हें एक समस्यामूलक कहानी सुनाता है और शर्त रहती है कि उसका समाधान जानते हुए भी यदि राजा नहीं बताएँगे तो उनके सिर के टुकडे-टुकडे हो जायेंगे और यदि राजा बोला तो बेताल मुक्त हो कर पेड़ पर लटक जावेगा। राजा ज्ञानवान थे, बुध्दिमान थे, वे समस्या का सटीक समाधान जानते थे। कहानियों का सिलसिला यूँ ही चलता रहता है।
2.) सिंहासन बत्तीसी (सिंहासन द्वात्रिंशिका) परवर्ती राजा भोज परमार को 32 पुतलियों से जड़ा स्वर्ण सिंहासन प्राप्त हुआ। जब वे उस पर बैठने लगे तो उनमे से एक-एक कर पुतलियों ने साकार होकर सम्राट विक्रमादित्य की न्यायप्रियता, प्रजावत्सलता, वीरता से भरी कहानियाँ सुनाई और शर्त रखी कि “यदि वे (राजा भोज) पूर्वज विक्रमादित्य के समकक्ष हैं, तभी उस सिंहासन के उत्तराधिकारी होगें”। एम.आई. राजस्वी की पुस्तक “राजा विक्रमादित्य” के अनुसार विक्रमादित्य को यह सिंहासन देवराज इंद्र ने दिया, जिसमें स्वर्ग की 32 शापित अप्सराएँ पुतलियाँ बनकर स्थित थीं जिन्होंने अत्यंत निकट से देखी थी विक्रमादित्य की न्यायप्रियता।
विक्रमादित्य स्वयं गुणी थे और विद्वानों, कवियों, कलाकारों के आश्रयदाता थे।
उनके दरबार में नौ प्रसिध्द विद्वान–
धन्वन्तरी, क्षपनक, अमरसिंह, शंकु, खटकरपारा, कालिदास, बेतालभट्ट, वररूचि और वाराहमिहिर थे। जो नवरत्न कहलाते थे। राजा इन्हीं की सलाह से राज्य का संचालन करते थे।
उज्जयिनी तत्कालीन ग्रीनविच थी। जहाँ से मध्यान्ह की गणना की जाती थी। सम्राट वैष्णव थे परंतु शैव एवं शाक्त मतों को भी भरपूर समर्थन मिला। तबसंस्कृत सामान्य बोलचाल की भाषा रही । विक्रमादित्य के समय में प्रजा दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों से मुक्त थी। चीनी यात्री फाहियान लिखता है-
“देश की जलवायु सम और एकरूप है। जनसँख्या अधिक है और लोग सुखी हैं।”
राजधानी उज्जैन की शोभा का वर्णन करते हुए कवि कालिदास ने लिखा है –
“यह नगर स्वर्ण का एक कांतिमय खंड था, जिसका उपभोग करने के लिए उत्कृष्ट आचरण वाले देवता अपने अवशिष्ट पुण्यों के प्रताप के कारण स्वर्ग त्याग कर पृथ्वी पर उतर आये थे।”
★.. विश्व विजेता सम्राट विक्रमादित्य—
ईसा से कई शताब्दी पूर्व भारत भूमि पर एक साम्राज्य था मालव गण। मालव गण की राजधानी थी भारत की प्रसिद्ध नगरी ‘उज्जयिनी’। उज्जयिनी एक प्राचीन गणतंत्र राज्य था। प्रजावात्सल्य राजा नाबोवाहन की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र गंधर्वसेन ने “महाराजाधिराज मालवाधिपति महेंद्राद्वित्तीय” की उपाधि धारण करके मालव गण को राजतन्त्र में बदल दिया। उस समय भारत में चार शक शासको का राज्य था। शक राजाओं के भ्रष्ट आचरणों की चर्चाए सुनकर गंधर्वसेन भी कामक व निरंकश हो गया। एक बार मालव गण की राजधानी में एक जैन साध्वी पधारी। उनके रूप की सुन्दरता की चर्चा के कारण गंधर्व सेन भी उनके दर्शन करने पहुँच गया। साध्वी के रूप ने उन्हें कामांध बना दिया। महाराज ने साध्वी का अपहरण कर लिया तथा साध्वी के साथ जबरदस्ती विवाह कर लिया। अपनी बहन साध्वी के अपहरण के बाद उनके भाई जैन मुनि कलिकाचार्य ने राष्ट्रद्रोह करके बदले की भावना से शक राजाओं को उज्जैन पर हमला करने के लिए तैयार कर लिया। शक राजाओं ने चारों और से आक्रमण करके उज्जैन नगरी को जीत लिया। शोषद वहाँ का शासक बना दिया गया। गंधर्वसेन, साध्वी सरस्वती और रानी सोम्यादर्शन के साथ विन्ध्याचल के वनों में छुप गये। साध्वी सरस्वती ने महारानी सोम्या से बहुत दुलार पाया तथा साध्वी ने भी गंधर्वसेन को अपना पति स्वीकार कर लिया। वनों में निवास करते हुए सरस्वती ने एक पुत्र को जन्म दिया जिनका नाम भर्तृहरि रखा गया। उसके तीन वर्ष पश्चात महारानी सोम्या ने भी एक पुत्र को जन्म दिया। जिनका नाम विक्रम सेन रखा गया। विंध्याचल के वनों में निवास करते हुए एक दिन गंधर्वसेन आखेट को गये, जहाँ वे एक सिंह का शिकार हो गये। वहीं साध्वी सरस्वती भी अपने भाई जैन मुनि कलिकाचार्य के राष्ट्र द्रोह से क्षुब्ध थी। महाराज की मृत्यु के पश्चात उन्होंने भी अपने पुत्र भर्तृहरि को महारानी सोम्यदर्शना को सोंपकर अन्न का
त्याग कर दिया और अपने प्राण त्याग दिए। उसके पश्चात महारानी सोम्या दोनों पुत्रों को लेकर कृष्ण भगवान् की नगरी चली गई तथा वहाँ पर अज्ञातवास काटने लगी। दोनों राजकुमारों में भर्तृहरि चिंतनशील बालक थे तथा विक्रम में एक असाधारण योद्धा के सभी गुण विद्यमान थे। अब समय धीरे-धीरे अपनी कालपरिक्रमा पर तेजी से आगे बढ़ने लगा। दोनों राजकुमारों को पता चल चुका था कि शको ने उनके पिता को हराकर उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया था तथा शक दशको से भारतीय जनता पर अत्याचार कर रहे है। विक्रम जब युवा हुए तब वे एक सुगठीत शरीर के स्वामी व एक महान योद्धा बन चुके थे। धनुष, खड़ग, असी, त्रिशूल व परशु आदि में उसका कोई सानी नही था। अपनी नेतृत्व करने की क्षमता के कारण उन्होंने एक सैन्य दल भी गठित कर लिया था। अब समय आ गया, भारतवर्ष को शकों से छुटकारा दिलाया जाय। वीर विक्रम सेन ने अपने मित्रो को संदेश भेजकर बुला लिया। सभाओं व मंत्रणा के दौर शुरू हो गए। निर्णय लिया गया कि सर्वप्रथम उज्जयिनी में जमे शकराज शोशाद और उसके भतीजे खारोस को युद्ध में पराजित करना होगा। परन्तु एक अड़चन थी कि उज्जयिनी पर आक्रमण के समय सौराष्ट्र का शकराज भुमक व तक्षशिला कुशुलुक शोषद की सहायता के लिए आयेंगे। विक्रम ने कहा कि शक राजाओं के पास विशाल सेनाये है संग्राम भयंकर होगा तो उनके मित्रो ने उन्हें आश्वासन दिया कि जब तक आप उज्जयिनी को जीत नही लेंगे तब तक का शक सौराष्ट्र व तक्षशिला की सेनाओं को हम आप के पास फटकने भी न देंगे। विक्रम सेन के इन मित्रों में सौवीरगन राज्य के युवराज प्रधुम्न, कुनिंद गन राज्य के युवराज भद्रबाहु, अमर्गुप्त आदि प्रमुख थे। अब सर्वप्रथम सेना की संख्या को बढ़ाना व उसको सुद्रढ़ करना था। सेना की संख्या बढ़ाने के लिए गाँव-गाँव के शिव मंदिरों में भैरव भक्त के नाम से गाँवों के युवकों को भर्ती किया जाने लगा। सभी युवकों को त्रिशूल प्रदान किए गए। युवकों को पास के वनों में शस्त्राभ्यास कराया जाने लगा। इस कार्य में वनीय क्षेत्र बहुत सहायता कर रहा था। इतना बड़ा कार्य होने के बाद भी शकों को कानोकान भनक भी नही लगी। कुछ ही समय में भैरव सैनिकों की संख्या लगभग ५० सहस्त्र हो गई। भारत वर्ष के वर्तमान की हलचल देखकर भारत का भविष्य अपने सुनहरे वर्तमान की कल्पना करने लगा। लगभग दो वर्ष भागदौड़ में बीत गए। इसी बीच विक्रम को एक नया सहयोगी मिल गया अपिलक। अपिलक आन्ध्र के महाराजा शिवमुख के अनुज थे। अपिलक को भैरव सेना का सेनापति बना दिया गया। धन की व्यवस्था का भार अमरगुप्त को सौपा गया। अब जहाँ भारत का भविष्य एक चक्रवर्ती सम्राट के स्वागत के लिए आतुर था वहीं चारो शक राजा भारतीय जनता का शोषण कर रहे थे और विलासी जीवन में लिप्त थे। ईसा की प्रथम शताब्दी में महाकुम्भ के अवसर पर सभी भैरव सैनिकों को साधू-संतो के वेष में उज्जयिनी के सैकड़ो गाँवों के मंदिरों में ठहरा दिया गया। महाकुम्भ का स्नान समाप्त होते ही सैनिको ने अपना अभियान शुरू कर दिया। भैरव सेना ने उज्जैन व विदिशा को घेर लिया। भीषण संग्राम हुआ। विदेशी शकों को बुरी तरह काट डाला गया। उज्जैन का शासक शोषद भाग खड़ा हुआ तथा मथुरा के शासक का पुत्र खारोश विदिशा के युद्ध में मारा गया। इस समाचार को सुनते ही सौराष्ट्र व मथुरा के शासकों ने उज्जयिनी पर आक्रमण किया। अब विक्रम के मित्रों की बारी थी उन्होंने सौराष्ट्र के शासक भुमक को भैरव सेना के साथ राह में ही घेर लिया तथा उसको बुरी तरह पराजित किया तथा अपने मित्र को दिया वचन पूरा किया। मथुरा के शक राजा राज्बुल से विक्रम स्वयं टकरा गये और उसे बंदी बना लिया। आंध्र महाराज सत्कारणी के अनुज अपिलक के नेतृत्व में पुरे मध्य भारत में भैरव सेना ने अपने तांडव से शक सेनाओं को समाप्त कर दिया। विक्रम सेन ने अपने भ्राता भृर्तहरि को उज्जयिनी का शासक नियुक्त कराया। तीनो शक राजाओं के पराजित होने के बाद तक्षशिला के शक राजा कुशुलुक ने भी विक्रम से संधि करली। मथुरा के शासक की महारानी ने विक्रम की माता सौम्या से मिलकर क्षमा मांगी तथा अपनी पुत्री के लिए विक्रम का हाथ मांगा। महारानी सौम्या ने उस बंधन को तुंरत स्वीकार कर लिया। विक्रम के भ्राता भर्तृहरि का मन शासन से अधिक ध्यान व योग में लगता था इसलिए उन्होंने राजपाट त्याग कर सन्यास ले लिया। उज्जयिनी नगरी के राजकुमार ने पुन: वर्षों पश्चात गणतंत्र की स्थापना की व्यवस्था की, परन्तु मित्रों व जनता के आग्रह पर विक्रम सेन को महाराजाधिराज विक्रमादित्य के नाम से सिंहासन पर आसीन होना पड़ा। लाखों की संख्या में शकों का यज्ञोपवित हुआ। शक हिंदू संस्कृति में ऐसे समा गए जैसे एक नदी समुद्र में मिलकर अपना अस्तित्व खो देती है। विदेशी शकों के आक्रमणों से भारत मुक्त हुआ तथा हिंदू संस्कृति का प्रसार समस्त विश्व में हुआ। इसी शक विजय के उपरांत ईशा से ५७ वर्ष पूर्व महाराजा विक्रमादित्य के राज्याभिषेक पर विक्रम संवत् की स्थापना हुई। आगे आने वाले कई चक्रवती सम्राटों ने इन्ही सम्राट विक्रमादित्य के नाम की उपाधि धारण की। राजा विक्रमादित्य भारत के सबसे महान सम्राट कहे जा सकते हैं उनका साम्राज्य पूरब में चीन से लेकर पश्चिम में इराक और टर्की तक फैला हुआ था। यकीन नहीं होता? आगे की कुछ चीज़ें पढने पर आपको ज़रूर इस बात पर यकीन हो जाएगा कि राजा विक्रमादित्य का साम्राज्य कितना महान था और उनकी पहुँच यूरोप के किन देशों तक थी और इस चीज़ की पुष्टि भी हो जाएगी कि ‘इस्लाम’ धर्म के आने के पहले इन मध्य पूर्व के देशों में विक्रमादित्य का साम्राज्य था और जहा “सनातन धर्म” का पालन किया जाता था।
ऐसा कहा जाता है कि ‘अरब’ का वास्तविक नाम ‘अरबस्थान’ है ‘अरबस्थान’ शब्द आया संस्कृत शब्द ‘अरवस्थान से, जिसका अर्थ होता है ’घोड़ों की भूमि’ और हम सभी को पता है कि अरब घोड़ों के लिए प्रसिद्ध है। टर्की देश में एक बहुत पुराना और मशहूर पुस्तकालय है जिसका नाम ‘मकतब-ए-सुल्तानिया है। इस पुस्तकालय के पास पश्चिम एशियाई साहित्य से सम्बंधित सबसे बड़ा पुस्तक संग्रह है इसी संग्रह में एक किताब संरक्षित रखी गई है किताब का नाम है ‘सायर-उल-ओकुल’ इस किताब में इस्लाम के पहले के कवियों और इस्लाम के आने के तुरंत बाद के कवियों का वर्णन कियागया है। इसी किताब में मौजूद है ‘सम्राट विक्रमादित्य’ पर आधारित एक कविता।
कविता इस प्रकार है
“इत्र शप्फाई सनतुल ‘बिकरमतु’ न
फहलमीन करीमुन यर्तफीहा वयोवस्सरू
विहिल्ला हाय यर्मामीन एला मोत कब्बे नरन
विहिल्लाहा मूही कैदमिन होया य फखरु
फज्जल असारी नहनोओ सारिमवे जे हलीन
युरिदुन विआ बिन कजनबिनयखतरु
यह सब दुन्या कनातेफ नातेफी विजेहलीन
अतदरी बिलला ममीरतुन फकफे तसबहु
कउन्नी एजा माजकर लहदा वलहदा
अशमीमान वुरकन कद तीलु हो बतस्तरु
कउन्नी एजा माजकर लहदा वलहदा
अशमीमान वुरकन कद तीलु हो बस्तरु
विहिल्लाहा यकजी बेनेनावले कुल्ले अमरेना
फहेया जाउना विल अमरे बिकरमतुन।”
–(सैअरुल ओकुल, पेज 315)
कविता अरबी में है लेकिन उस कविता का हिंदी अनुवाद हम आपके सामने पेश करते हैं-
“वे लोग धन्य है जो राजा विक्रम के समय उत्पन्न हुए जो बड़ा ज्ञानी, धर्मात्मा और प्रजापालक था। परन्तु ऐसे समय हमारा अरब ईश्वर को भूलकर भोग विलास में लिप्त था, छल कपट को ही लोगो ने बड़ा गुण मान लिया था। हमारे देश में अविद्या का अन्धकार फैला हुआ था, जैसे बकरी का बच्चा भेड़िये के पंजे में फसकर छटपटाता है, छुट नही सकता, हमारी जाति मुर्खता के पंजे में फसी हुई थी। संसार के व्यवहार को अविद्या के कारण हम भूल चुके थे। सारे देश में अमावस्या की रात्रि का अंधकार फैला हुआ था। परन्तु अब जो विद्या का प्रातः कालीन सुखदाई प्रकाश दिखाई देता है, वह कैसे हुआ? यह उसी धर्मात्मा राजा विक्रमादित्य की कृपा है जिसने हम विदेशियों को भी अपनी दयादृष्टि से शिथिल कर अपनी जाति के विद्वानों को यहाँ भेजा, जो हमारे देश में सूर्य की तरह चमकते थे। जिन महापुरुषों की कृपा से हमने भुलाये हुए ईश्वर और उनके पवित्र ज्ञान को जाना और हम सत्यपथ पर आये, वे लोग राजा विक्रम की आज्ञा से हमारे देश में विद्या और धर्म के प्रचार के लिए आये थे।”
यह कविता इस बात का सबूत है कि विक्रमादित्य भारत के पहले राजा थे जिन्होंने अरबस्थान में विजय प्राप्त की। राज्य पर और लोगों के दिलो पर भी।
इतिहासकारों के अनुसार उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान, इराक और अरब में भी था। अरब और मिस्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे। धरती के उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध के बीच तीन काल्पनिक रेखाएं खींची गई है:-
1. कर्क रेखा 2. भूमध्य रेखा 3. मकर रेखा।
भारत के प्राचीन ऋषि-मुनियों को खगोल विज्ञान की अधिक जानकारी थी। उन्होंने अपनी इस जानकारी को
वास्तुरूप देने के लिए वहां-वहां मंदिर या मठ बनवाए जहां का कोई न कोई खगोलीय या प्राकृतिक महत्व था। इसी क्रम में उन्होंने कर्क रेखा पर ज्योतिर्लिंगों की स्थापना की। सम्राट विक्रमादित्य ने उक्त ज्योतिर्लिंगों को भव्य आकार दिया था।
विक्रमादित्य भारत के महानतम् सम्राट थे। कहा जाता है कि उनके द्वारा किए गए महान कार्यों के पन्नों को पहले बौद्धकाल, फिर मध्यकाल में फाड़ दिया गया।
सम्राट विक्रमादित्य के काल में भारत विज्ञान, कला, साहित्य, गणित, नक्षत्र आदि विद्याओं का विश्वगुरु था। विक्रमादित्य की प्रतिद्वंद्विता रोमन सम्राट से चलती थी कारण यह था कि उसके द्वारा यरुशलम, मिस्र और सऊदी अरब पर आक्रमण करना और विक्रम संवत् के प्रचलन को रोकना। बाद में रोमनों ने विक्रम संवत् कैलेंडर की नकल करके रोमनों के लिए एक नया कैलेंडर बनाया।
ज्योतिर्विदाभरण अनुसार (ज्योतिर्विदाभरण की रचना 3068 कलिवर्ष (विक्रम संवत् २४) या ईसा पूर्व ३३ में हुई थी) विक्रम संवत् के प्रभाव से उसके 10 पूर्ण वर्ष के पौष मास से जुलियस सीजर द्वारा कैलेंडर आरंभ हुआ, यद्यपि उसे सात दिन पूर्व आरंभ करने का आदेश था। विक्रमादित्य ने रोम के इस शककर्ता को बंदी बनाकर उज्जैन में घुमाया था (78 ईसा पूर्व में) तथा बाद में छोड़ दिया। रोमनों ने अपनी इस हार को छुपाने के लिए इस घटना को बहुत घुमा-फिराकर इतिहास में दर्ज किया जिसमें उन्हें जल दस्युओं द्वारा उसका अपहरण करना बताया गया तथा उसमें भी सीजर का गौरव दिखाया है।
यो रुमदेशधिपति शकेश्वरं जित्वा गृहीत्वोज्जयिनी महाहवे।
आनीय संभ्राम्य मुमोचयत्यहो स विक्रमार्कः समस हयाचिक्रमः।।
—(‘ज्योतिविर्दाभरण’ नामक ज्योतिष ग्रन्थ २२/१७ से..)
यह श्लोक स्पष्टतः यह बता रहा है कि रुमदेशधिपति.. रोम देश के स्वामी शकराज (विदेशी राजाओं को तत्कालीन भाषा में शक ही कहते थे, तब शकों के आक्रमण से भारत त्रस्त था) को पराजित करके विक्रमादित्य ने बंदी बना लिया और उसे उज्जयिनी नगर में घुमा कर छोड़ दिया था। यही वह शौर्य है जो पाश्चात्य देशों के ईसाई वर्चस्व वाले इतिहासकारो को असहज कर देता है और इससे बच निकलनें के लिए वे एक ही शब्द का उपयोग करते हैं “यह मिथक है, यह सही नहीं है।” उनके साम्राज्य में पूछे भी कौन कि हमारी सही बातें अगर गलत हैं तो आपकी बातें सही कैसे हैं? यही कारण है कि आज जो इतिहास हमारे सामनें है वह भ्रामक और झूठा होने के साथ-साथ योजना पूर्वक कमजोर किया गया इतिहास है। पाश्चात्य इतिहासकार रोम की इज्जत बचानें और अपनें को बहुत बड़ा बतानें के लिए चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के अस्तित्व को भी नकारते हैं मगर हमारे देश में जो लोक कथाएं, किंवदंतियाँ और मौजूदा तत्कालीन साहित्य है वह बताता है कि श्रीराम और श्रीकृष्ण के बाद कोई सबसे लोकप्रिय चरित्र है तो वह विक्रमादित्य का है। वे लोक नायक थे उनके नाम से सिर्फ विक्रम संवत ही नहीं बेताल पच्चीसी और सिंहासन बत्तीसी का यह नायक भास्कर पुराण में अपने सम्पूर्ण वंश वृक्ष के साथ उपस्थित है विक्रमादित्य परमार वंश के क्षत्रिय थे। उनका वर्णन सूर्यमल्ल मिश्रण कृत वंश भास्कर में भी है। उनके वंश के कई प्रसिद्ध राजाओं के नाम पर चले आ रहे नगर व क्षेत्र आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं। जैसे देवास, इंदौर, भोपाल और बुन्देलखंड नामों का नामकरण विक्रमादित्य के ही वंशज राजाओं के नाम पर है।
विक्रमादित्य के काल में अरब में यमन, सबाइन, इराक में असुरी, ईरान में पारस्य (पारसी) और भारत में आर्य सभ्यता के लोग रहते थे। माना जाता है कि यह ‘असुरी’ शब्द ही ‘असुर’ से बना है। कहते हैं कि इराक के पास जो सीरिया है वह भी असुरिया से प्रेरित है। यह भी कहा जाता हैं कि विक्रमादित्य के काल में दुनियाभर के ज्योतिर्लिंगों के स्थान का जीर्णोद्धार किया गया था। इनमें से अधिकतर ज्योतिर्लिंग कर्क रेखा पर निर्मित किए गए थे। ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख रूप से थे गुजरात के सोमनाथ, उज्जयिनी के महाकालेश्वर और काशी के विश्वनाथ। माना जाता है कि कर्क रेखा के नीचे 108 शिवलिंगों की स्थापना कीगई थी। उनमें से कुछ एक हिन्दू विद्वान मक्का में मुक्तेश्वर (मक्केश्वर) शिवलिंग के होने का दावा करते हैं। उनके दावे अनुसार यदि हम मक्का और काशी के मध्य स्थान की बात करें तो वह तो अरब सागर (सिंधु सागर) में होगा लेकिन सोमनाथ का ज्योतिर्लिंग को बीच में मान सकते हैं। कर्क रेखा के आसपास 108 शिवलिंगों की गणना की गई है। हालांकि इस दावे में कितनी सच्चाई है। इसके लिए शोध किए जाने की जरूरत है।
विक्रमादित्य ने नेपाल के पशुपतिनाथ, केदारनाथ और बद्रीनाथ मंदिरों को फिर से बनवाया था। इन मंदिरों को बनवाने के लिए उन्होंने मौसम वैज्ञानिकों, खगोलविदों और वास्तुविदों की भरपूर मदद ली। नेपाली राजवंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय (ईसापूर्व पहली शताब्दी) में उज्जयिनी सम्राट विक्रमादित्य के नेपाल आने का भी उल्लेख मिलता है। सम्राट विक्रमादित्य की महानता भारत की संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है। उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीयसाहित्य में भरी पड़ी हैं।
★.. विक्रम और शालिवाहन संवत्—
वर्तमान भारत में दो संवत् प्रमुख रूप से प्रचलित हैं। विक्रम संवत् और शक शालिवाहन संवत। दोनों संवतों का सम्बन्ध शकों की पराजय से है। उज्जयिनी के पंवार वंशीय राजा विक्रमादित्य ने जब शकों को सिंध के बहार धकेल कर वहा विजय प्राप्त की थी तब उन्हें ‘शकारि’ की उपाधि धारण करवाई गई थी तथा तब से ही विक्रम संवत् का शुभारम्भ हुआ। विक्रमादित्य की मृत्यु के पश्चात शकों के उपद्रव पुनः प्रारंभ हो गये तब उन्हीं के प्रपोत्र राजा शालिवाहन ने शकों को पुनः पराजित किया और इस अवसर पर शालिवाहन संवत् प्रारंभ हुआ। जिसे हमारी केंद्र सरकार ने राष्ट्रिय संवत् माना है जो कि सौर गणना पर आधारित है। सम्राट विक्रमादित्य के महान साम्राज्य क्षेत्र में वर्तमान भारत, चीन, नेपाल, भूटान, तिब्बत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, रूस, कजाकिस्तान, अरब क्षेत्र, इराक, इरान, सीरिया, टर्की, म्यांमार, दोनों कोरिया, श्रीलंका इत्यादि क्षेत्र या तो सम्मिलित थे अथवा संधिकृत थे। उनका साम्राज्य सुदूर बलि दीप तक पूर्व में और सऊदी अरब तक पश्चिम में था।
सायर उल ओकुल, मकतब-ए-सुल्तानिया/लाइब्रेरी इन इस्तांबुल, टर्की के अनुसार सम्राट विक्रमादित्य ने अरब देशों पर शासन किया है। अनेंकों दुर्जेय युद्ध लड़े और संधियाँ की।
यह सब इसलिए हुआ कि भारत में किसी भी राजा को सामर्थ्य के अनुसार राज्य विस्तार की परम्परा थी जो अश्वमेध यज्ञ के नाम से जानी जाती थी। उनसे पूर्व में भी अनेकों राजाओं के द्वारा यह होता रहा है। श्रीराम युग में भी इसका वर्णन मिलता है। कई उदाहरण बताते हैं कि विक्रमादित्य की अन्य राज्यों से संधिया मात्र कर प्राप्ति तक सिमित नहीं थी बल्कि उन राज्यों में समाज सुव्यवस्था, शिक्षा का विस्तार, न्याय और लोक कल्याण कार्यों की प्रमुखता को भी संधिकृत किया जाता था। अरब देशों में उनकी कीर्ति इसीलिए है कि उन्होंने वहां व्याप्त तत्कालीन अनाचार को समाप्त करवाया था। वर्त्तमान ज्ञात इतिहास में विक्रम जितना बड़ा साम्राज्य और इतनी विजय का कोई समसामयिक रिकार्ड सामनें आता है तो वह है ब्रिटेन की विश्वविजय के। सिकंदर जिसे कथित रूप से विश्वविजेता कहा जाता है। विक्रमादित्य के सामनें वह बहुत ही बौना था। उसने सिर्फ कई देशों को लूटा शासन नहीं किया। उसे लुटेरा ही कहा जा सकता है। एक शासक के जो कर्तव्य हैं उनकी पूर्ती का कोई इतिहास सिकंदर का नहीं है।
जनश्रुतियां हैं कि विक्रम की सेना के घोड़े एक साथ तीन समुद्रों का पानी पीते थे।
★.. भारतीय पुरुषार्थ को निकाला—
विक्रमादित्य तो एक उदाहरण मात्र है, भारत का पुराना अतीत इसी तरह के शौर्य से भरा हुआ है। भारत पर विदेशी शासकों के द्वारा लगातार राज्य शासन
के बावजूद निरंतर चले भारतीय संघर्ष के लिए ये ही शौर्य प्रेरणाएं जिम्मेवार हैं। भारत पर शासन कर रही ईस्ट इण्डिया कंपनी और ब्रिटिश सरकार ने उनके साथ हुए कई संघर्ष और 1857 में हुई स्वतंत्रता क्रांति के लिए भारतीय शौर्य को ही जिम्मेवार माना है और तब भारतियों को विस्मृत करनें का कार्यक्रम संचालित हुआ। ताकि भारत की संतानें पुनः आत्मोत्थान प्राप्त न कर सकें। एक सुनियोजित योजना से भारतवासियों को हतोत्साहित करने के लिए प्रेरणा खंडों को लुप्त किया, उन्हें इतिहास से निकाल दिया गया, उन अध्यायों को मिथक या कभी अस्तित्व में नहीं रहे है इस तरह की भ्रामकता थोपी गई। अरबी और यूरोपीय इतिहासकार श्रीराम, श्रीकृष्ण और विक्रमादित्य को इसी कारण लुप्त करते हैं कि भारत का स्वाभिमान पुनः जाग्रत न हो सके उसका शौर्य और श्रेष्ठता पुनः जम्हाई न लेने लगे। इसीलिए एक जर्मन इतिहासकार पाक़ हेमर ने एक बड़ी पुस्तक ‘इण्डिया-रोड टू नेशनहुड’ लिखी है इस पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि “जब में भारत का इतिहास पढ़ रहा हूँ लगता है कि भारत कि पिटाई का इतिहास पढ़ रहा हूँ, भारत के लोग पिटे, मरे, पराजित हुए, यही पढ़ रहा हूँ इससे मुझे यह भी लगता है कि यह भारत का इतिहास नहीं है।” पाक हेमर ने आगे उम्मीद की है कि “जब कभी भारत का सही इतिहास लिखा जायेगा तब भारत के लोगों में, भारत के युवकों में, उसकी गरिमा की एक वारगी (उत्प्रेरणा) आयेगी।”
अर्थात हमारे इतिहास लेखन में योजनापूर्वक अंग्रेजों नें उसकी यशश्विता को निकाल बहार किया, उसमें से उसके पुरुषार्थ को निकाल दिया, उसके मर्म को निकाल दिया, उसकी आत्मा को निकाल दिया महज एक मरे हुए शरीर की तरह मुर्दा कर हमें परोस दिया गया है जो की झूठ का पुलंदा मात्र है।
★.. भारत अपने इतिहास को सही करे। —
हाल ही में भारतीय इतिहास एवं सभ्यता के संदर्भ में अंतरराष्ट्रिय संगोष्ठी ११-१३ जनवरी २००९ को नई दिल्ली में हुई जिसमें १५ देशों के विशेषज्ञ एकत्र हुए थे। सभी ने एक स्वर में कहा अंग्रेजों के द्वारा लिखा गया, लिखाया गया इतिहास झूठा है तथा इस का पुनः लेखन होना चाहिए। इसमें हजारों वर्षो का इतिहास छूटा हुआ है, कई बातें वास्तविकता से मेल नहीं खाती हैं। उन्होंने बताया की विश्व के कई देशों ने स्वतन्त्र होनें के बाद अपने देश के इतिहास को पुनः लिखवाया है उसे सही करके व्यवस्थित किया है। भारत भी अपने इतिहास को सही करे।
★.. बहुत कम है भारतीय इतिहास। —
भारत के नई दिल्ली स्थित संसद भवन, विश्व का ख्याति प्राप्त विशाल राज प्रशाद है, जब इसे बनाने की योजना बन रही थी। तब ब्रिटिश सरकार ने एक गुलाम देश में इतनें बड़े राज प्रशाद निर्माण के औचित्य पर प्रश्न खड़ा किया था। इतने विशाल और भव्य निर्माण की आवश्यकता क्या है? तब ब्रिटिश सरकार को बताया गया कि भारत कोई छोटा मोटा देश नहीं है। यहाँ सैंकड़ों बड़ी-बड़ी रियासतें हैं और उनके राज प्रशाद भी बहुत बड़े-बड़े तथा विशालतम हैं। उनकी भव्यता और क्षेत्रफल भी असामान्य रूप से विशालतम हैं। उनको नियंत्रित करने वाला राज प्रशाद कम से कम इतना बड़ा तो होना चाहिए कि वह उनसे श्रेष्ठ न सही तो कम से कम समकक्ष तो हो। इसी तथ्य के आधार पर भारतीय संसद भवन के निर्माण कि स्वीकृति मिली ।
अर्थात जिस देश में लगातार हजारों राजाओं का राज्य एक साथ चला हो उस देश का इतिहास महज चंद अध्यायों में पूरा हो गया? क्षेत्रफल, जनसँख्या और गुजरे विशाल अतीत के आधार पर यह इतिहास महज राई भर भी नहीं है। न ही एतिहासिक तथ्य हैं, न हीं स्वर्णिम अध्याय, न हीं शौर्य गाथाएं… सब कुछ जो भारत के मस्तक को ऊँचा उठाता हो वह गायब कर दिया गया, नष्ट कर दिया गया।
★.. इस्लाम के आक्रमण ने लिखित इतिहास जलाये। —
राजपूताना का इतिहास लिखते हुए कर्नल टाड कहते हैं कि “जब से भारत पर महमूद (गजनी) द्वारा आक्रमण होना प्रारम्भ हुआ, तब से मुस्लिम शासकों नें जो निष्ठुरता, धर्मान्धता दिखाई उसको नजर में रखनें पर बिलकुल आश्चर्य नहीं होता कि भारत में इतिहास के ग्रन्थ बच नहीं पाए। इस पर से यह असंभवनीय अनुमान निकालना भी गलत है कि हिन्दू लोग इतिहास लिखना जानते नहीं थे। अन्य विकसित देशों में इतिहास लेखन कि प्रवृति प्राचीन काल से पाई जाती थी तो क्या अति विकसित हिन्दू राष्ट्र में वह नहीं होगी?” उन्होंने आगे लिखा है कि “जिन्होनें ज्योतिष, गणित आदि श्रम साध्य शास्त्र सूक्ष्मता और परिपूर्णता के साथ अपनाये। वास्तुकला, शिल्प, काव्य, गायन आदि कलाओं को जन्म दिया इतना ही नहीं उन कलाओं को, विद्याओं को नियमबद्ध ढांचे में ढाल कर उसके शास्त्र शुद्ध अध्ययन कि पध्दति सामने रखी उन्हें क्या राजाओं का चरित्र और उनके शासनकाल में घटित प्रसंगों को लिखने का मामूली काम करना न आता?”
★..हर ओर विक्रमादित्य—
भारतीय और सम्बद्ध विदेशी इतिहास एवं साहित्य के पृष्ठों पर भारतीय संवत, लोकप्रिय कथाओं, ब्राह्मण -बौध्द और जैन साहित्य तथा जन श्रुतियों, अभिलेख (एपिग्राफी), मौद्रिक (न्युमीस्टेटिक्स) तथा मालव और शकों की संघर्ष गाथा आदि में उपलब्ध विभिन्न स्त्रोतों तथा उनमें निहित साक्ष्यों का परिक्षण सिध्द करता है कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में सम्राट विक्रमादित्य का अस्तित्व था वे मालव गणराज्य के प्रमुख थे, उनकी राजधानी उज्जयिनी थी, उन्होंने मालवा को शकों के आधिपत्य से मुक्त करवाया था और इसी स्मृति में चलाया संवत् ‘विक्रम संवत्’ कहलाता है जो प्रारंभ में ‘कृत संवत’, बाद में ‘मालव संवत’ और अंत में ‘विक्रम संवत्’ के नाम से स्थायी रूप से विख्यात हुआ।
★.. ४०० वर्षों का लुप्त इतिहास।—
ब्रिटश इतिहासकार स्मिथ आदि ने आंध्र राजाओं से लेकर हर्षवर्धन के राज्यकाल में कोई एतिहासिक सूत्र नहीं देखते प्रायः चार सौ वर्षों के इतिहास को घोर अंधकारमय मानते हैं पर भविष्य पुराण में जो वंश वृक्ष निर्दिष्ट हुआ है। यह उन्ही चार सौ वर्षों के लुप्त कालखंड से सम्बद्ध है। इतिहासकारों को इससे लाभ उठाना चाहिए। भारत में विक्रमादित्य अत्यन्त प्रसिद्ध, न्यायप्रिय, दानी, परोपकारी और सर्वांग सदाचारी राजा हुए हैं। स्कन्ध पुराण और भविष्य पुराण, कथा सप्तशती, बृहत्कथा और द्वात्रिश्न्त्युत्तालिका, सिंहासन बत्तीसी, कथा सरितसागर, पुरुष परीक्षा, शनिवार व्रत की कथा आदि ग्रन्थों में इनका चरित्र आया है। बूंदी के सुप्रशिद्ध इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण कृत वंश भास्कर में परमार वंशीय राजपूतों का सजीव वर्णन मिलता है इसी में वे लिखते हैं “परमार वंश में राजा गंधर्वसेन से भर्तृहरि और विक्रमादित्य नामक तेजस्वी पुत्र हुए जिसमें विक्रमादित्य नें धर्मराज युधिष्ठर के कंधे से संवत् का जुड़ा उतार कर अपने कंधे पर रखा। कलिकाल को अंकित कर समय का सुव्यवस्थित गणितीय विभाजन का सहारा लेकर विक्रम संवत् चलाया।”
वीर सावरकर ने इस संदर्भ में लिखा है कि ‘एक ड्रानी जनश्रुति है कि ‘ईरान के राजा मित्रडोट्स जो तानाशाह हो अत्याचारी हो गया था का वध विक्रमादित्य ने किया था और उस महान विजय के कारण विक्रम संवत् प्रारम्भ हुआ।’
★.. संवत् कौन प्रारंभ कर सकता है?
यूं तो अनेकानेक संवतों का जिक्र आता है और हर संवत् भारत में चैत्र प्रतिपदा से ही प्रारम्भ होता है मगर अपने नाम से संवत् हर कोई नहीं चला सकता। स्वय के नाम से संवत् चलाने के लिए यह जरूरी है कि उस राजा के राज्य में कोई भी व्यक्ति/प्रजा कर्जदार नहीं हो। इसके लिए राजा अपना कर्ज तो माफ़ करता ही था तथा जनता को कर्ज देने वाले साहूकारों का कर्ज भी राजकोष से चुका कर जनता को वास्तविक कर्ज मुक्ति देता था। अर्थात संवत् नामकरण को भी लोक कल्याण से जोड़ा गया था ताकि आम जनता का परोपकार करने वाला ही अपना संवत चला सके। सुप्रसिद्ध इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण कि अभिव्यक्ति से तो यही लगता है कि सम्राट धर्मराज युधिष्ठिर के पश्चात विक्रमादित्य ही वे राजा हुए जिन्होनें जनता का कर्ज (जुड़ा) अपने कंधे पर लिया। इसी कारण उनके द्वारा प्रवर्तित संवत् सर्वस्वीकार्य हुआ।
★.. ४००० वर्ष पुरानी उज्जयनी।
अवंतिका के नाम से सुप्रसिद्ध यह नगर श्रीकृष्ण के बाल्यकाल का शिक्षण स्थल रहा है, संदीपन आश्रम यहीं है जिसमें श्रीकृष्ण, बलराम और सुदामा का शिक्षण हुआ था। अर्थात आज से कम से कम पांच हजार वर्षों से अधिक पुरानी है यह नगरी। दूसरी प्रमुख बात यह है कि अग्निवंश के परमार राजाओ कि एक शाखा चन्द्र प्रद्धोत नामक सम्राट ईस्वी सन् के ६०० वर्ष पूर्व सत्तारूढ़ हुआ अर्थात लगभग २६०० वर्ष पूर्व और उसके वंशजों नें तीसरी शताब्दी तक राज्य किया। इसका अर्थ यह हुआ कि ९०० वर्षो तक परमार राजाओं का मालवा पर शासन रहा। तीसरी बात यह है कि कार्बन डेटिंग पद्धति से उज्जयिनी नगर कि आयु ईस्वी सन से २००० वर्ष पुरानी सिद्ध हुई है इसका अर्थ हुआ कि उज्जयिनी नगर का अस्तित्व कम से कम ४००० वर्ष पूर्व का है। इन सभी बातो से साबित होता
है कि विक्रमादित्य पर संदेह गलत है।✌️
★.. नवरत्न
सम्राट विक्रमादित्य कि राजसभा में नवरत्न थे। ये नौ व्यक्ति तत्कालीन विषय विशेषज्ञ थे।
धन्वन्तरि: महान वैद्य, जिन्होंने औषधि विज्ञान का अविष्कार किया।
क्षणपक: वे महान गणितज्ञ और महाराज के कोषाध्यक्ष थे।
अमर सिंह: ये शब्दों के अद्भुत जानकर थे। कहा जाता है कि सर्वप्रथम उन्होंने
ही शब्दकोष (डिक्सनरी) की रचना की।
शंकुः महान नीतिज्ञ एवं रस शास्त्र के ज्ञाता।
बेताल भट्टः बेताल पच्चीसी के रचयिता, महान योद्धा जो सदैव महाराज के साथ ही रहे।
घटकर्पर: महान साहित्य रचनाकार।
वराहमिहिरः महान ज्योतिषाचार्य एवं अंक ज्योतिष के अधिष्ठाता, उस युग के प्रमुख ज्योतिषी वराह मिहिर थे, जिन्होंने विक्रमादित्य की बेटे की मौत की भविष्यवाणी की थी।
वररूचिः महान संगीतज्ञ एवं व्याकरण के विद्वान ।
कालिदासः संस्कृत काव्य और नाटकों के लिए विश्व प्रसिद्ध, महान कवि जिन्होंने कुमारसम्भव, मेघदूत, रघुवंश, अभिज्ञान शाकुंतलम जैसे कालजयी महाकाव्यों की रचना की। बाद में अनेक राजाओं ने इनका अनुशरण कर विक्रमादित्य पदवी धारण की एवं नवरत्नों को राजसभा में स्थान दिया। इसी वंश के महाराजा भोज से लेकर अकबर तक की राजसभा में नवरत्नो का जिक्र है। बेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे।
माना जाता है कि उन्होंने विक्रमादित्य को सोलह छंदों की रचना “नीति-प्रदीप” (सचमुच “आचरण का दीया”) का श्रेय दिया है।
विक्रमादित्य का व्यक्तित्व बहुमुखी था और उन्होंने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपने को दक्ष कर लिया था। राजनीति में उनकी सफलतायें महान थी। साहित्य और कला को आश्रय देने में भारतीय इतिहास के बहुत कम व्यक्ति उनकी समता कर सकते है। उदारता, साहस और कर्तव्य-परायणता, मानुषिक मामलो में अंतर्दृष्टि तथा हृदय और बुद्धि के अन्यान्य गुणों में विक्रमादित्य पूजा और अनुकरण करने योग्य है।
जनता के मूल्यांकन में वे महाकाव्य ‘रामायण और महाभारत’ के चरितनायक राम और कृष्ण के बाद आते हैं। भारतीय अन्य शासक सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, पुष्यमित्र, गौतमीपुत्र शातकर्णी, कनिष्क, समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य, हर्षवर्धन आदि केवल इतिहासकारों की निधि हैं। भारतीय जनता ने लगभग उन्हें भुला दिया है। किंतु उसने अब तक विक्रमादित्य
को अपनी परंपरा साहित्य और स्मृति में बनाए रखा है। वे देश के महान पुरुषों में अनुपम समझे जाते हैं: ’पृथ्वी को भोगने वाले विक्रमादित्य ने वह किया जो अन्य किसी ने नहीं किया, उन्होंने वह दिया जो अन्य किसी द्वारा नहीं दिया गया तथा उन्होंने उन कार्यों में भी सफलता प्राप्त की जो दूसरों के लिए असाध्य थे।’
विक्रमादित्य एक पूर्णतः ऐतिहासिक व्यक्ति थे किंतु समयानुसार उन्होंने जिन अपूर्व सफलताओं तथा सद्गुणों का संचय किया उनके कारण वे एक अनुकरणीय आदर्श बन गये। प्रारंभ में विक्रमादित्य व्यक्तिवाचक नाम था, किंतु बाद में वह विरुद बन गया। कोई भी भारतीय शासक जो विदेशी आक्रमणकारियों को पराजित करने में सफल होता था या एक कुशल तथा उदार शासन-व्यवस्था स्थापित करने तथा कला और संस्कृति की अभिवृद्धि करने में सफल होता था। विक्रमादित्य की उपाधि धारण कर लेता था तथा इस प्रकार उज्जयिनी के महान विक्रमादित्य की स्मृति को आदर तथा सम्मान प्रदान करता था। भारतवर्ष में राजाओं की लंबी सारणी है जिन्होंने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। ऐसा करने वाले समुद्रगुप्त प्रथम नरेश थे, जिन्होंने शाहानुशाही शक-गुरुण्डों को अधिनस्थ मित्रता के लिए विवश कर दिया था। इस परंपरा का अनुसरण चंद्रगुप्त द्वितीय, कुमार गुप्त, स्कन्दगुप्त, चालुक्य नरेश षष्ठ विक्रम तथा चोलनरेश विक्रम आदि ने किया। विक्रमादित्य की उपाधि धारण करने की परम्परा हेमचंद्र विक्रमादित्य (मुसलमान लेखकों का हेमू) तक बनी रही, जिसने सन् 1555 में पानीपत के द्वितीय महासमर में मुगलों की शक्ति का विरोध किया था तथा जिसकी दुःखान्त और वीरता पूर्ण मृत्यु हुई थी।
क्या आप जानते हैं कि आज हमारे पास जो हमारे धर्म ग्रन्थ लिखित रूप में उपलब्ध हैं उसमें सम्राट विक्रमादित्य का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने हमारे
सभी धर्म ग्रंथों को लिखित रूप से ताड़पत्रों पर सुरक्षित किया। इसके अतिरिक्त महाकवि कालिदास ने विक्रमादित्य के अनुरोध पर ही हमारे पौराणिक चरित्रों को केंद्र में रख कर अनेक महाकाव्यों की रचना की। इसके अतिरिक्त आज उज्जैन में जो महाकालेश्वर महादेव का मंदिर है वो भी सम्राट विक्रमादित्य की ही देन है। महाकालेश्वर के अतिरिक्त भी उन्होंने पूरे देश में महादेव एवं भगवान विष्णु के अनेक मंदिर बनवाये। अयोध्या में जिस राम मंदिर को तोड़ कर बाबरी मस्जिद बनाई गयी वो मंदिर भी महाराज विक्रमादित्य ने ही बनवाया था। सम्राट विक्रमादित्य ने कुल एक सौ वर्षों तक शासन किया।
हमें गर्व है कि भारत भूमि पर ऐसे महान राजा ने जन्म लिया।