” उज़्र ” ग़ज़ल
बढ़ाता दोस्ती का हाथ हूँ, मुद्दत से मैं फिर भी,
उन्हें दुश्मन बनाने मेँ, ज़रा सी देर लगती है।
मिटे हर फ़ासला, हर दम यही कोशिश रही मेरी,
उन्हें पर, दूर जाने मेँ, ज़रा सी देर लगती है।
समँदर ने छुपा रक्खे हैं, कितने राज़ गहरे मेँ,
उन्हें ग़ुस्सा जताने मेँ, ज़रा सी देर लगती है।
भरोसा हर किसी पे, इस क़दर अच्छा नहीं हरगिज़,
कि दिल मेँ खोट आने मेँ, ज़रा सी देर लगती है।
है कश्ती नातवाँ मेरी, हुई पतवार भी जर्जर,
तलातुम उनको लाने मेँ, ज़रा सी देर लगती है।
बड़ी चर्चा ज़माने मेँ है, उनके फ़ैज़ की फिर भी,
हमीं से, मुँह छुपाने मेँ, ज़रा सी देर लगती है।
जला रक्खा है हमने दीप, आँधी मेँ भी उल्फ़त का,
उन्हें, तूफ़ां उठाने मेँ, ज़रा सी देर लगती है।
खिलौनों की तरह खेलेँ न, मेरे दिल से वो, “आशा”,
कि इसके, टूट जाने मेँ, ज़रा सी देर लगती है..!
उज़्र # आपत्ति, objection
नातवाँ # दुर्बल, frail
तलातुम # विप्लव, उथल-पुथल, turmoil
फ़ैज़ # दानवीरता, mercifulness
उल्फ़त # प्रेम, love
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