ईर्ष्या
ईर्ष्या
आज भी
ईर्ष्या तू ना गई मेरे मन से
आज भी पास होकर तुम इतराती हो या
फिर दूर रहकर यूं मुझसे विद्वेष रखतीं हो…
अक्सर कई बार पढ़ा है मैंने तुम्हे ! जो देखा है
बस आज भी तुम बदले नहीं जो वो ईर्ष्या रखते हो
सद का भावार्थ लिए बिना ही आज मुझसे टकराते हो
हो कोई स्वार्थ अपनी चुप्पी में तो आज आंखें मुंद्रा कतराते हो…..
अक्सर ईर्ष्या तुने मुझे !हरबार , तनक कर देखा
मेरे जज्बात को जाने बिना अक्सर वो मुंह फेरते देखा
यकिनन मेरे कदमों की थाप तेरे हित में थी सदा गर तू समझा नही
जो आज मेरे विश्वास को परखे बिना ही हस्ती! वो ही ईर्ष्या करते देखा….
गर वो तनिक भी ईर्ष्या से परे मुझे! एकबार देखता तो अच्छा होता.
मगर वो मगरूर ईर्ष्या से भरा मुझे आंखों से आज भी सदा यूं कोसते देखा
अब क्या कहूँ मेरी ईर्ष्या से हस्ती जो खुद से मुझे जलाता रहा
अपनी पैनी निगाहों से अक्सर पास होकर भी आज वो मुझे कोसता रहा
जो देखता हूँ आज भी मेरी राहों में वो चुपके से गड्ढे खोदता रहा
मैं इर्ष्या से परे उसे देखता अपना आज मगर वो आज भी मुझे बस!इर्ष्या से मारता रहा….
अब तुम बताओ मेरी ईर्ष्या से मैं कैसे दूर रहूं
जिसके न होने से आज भी मैं अछुता रहूं
यकिनन ईर्ष्या से मैं जलता रहा डरता रहा
मगर मैं कैसे कहूँ! की अब मैं कैसे दूर रहूं….
स्वरचित कविता
सुरेखा राठी