ईश्वर बनने की त्रुटि का प्रतिफल-‘कोरोना’?
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प्रकृति प्रसूता है,सब कुछ जनती है।
अमृत, और व्याधि भी,जब तनती है।
मानवी नहीं है जो बलात्कार सहेगी।
वह,युग की त्रुटियों को अभिशप्त करेगी।
भीम और अर्जुन की ऊर्जा पुत्रों को,
युधिष्टिर की व्याख्या,धर्म के सूत्रों को ।
प्रतिशोध के लिए माद्री पुत्रों को करेगी प्रस्तुत।
असंगत उपलब्धियों के अहंकार को ध्वस्त।
प्रकृति के विरुद्ध हर षड्यन्त्र को पराजित।
नष्ट कर देती है हद से बढ़ा हर साजिश।
प्रकृति चुनौती नहीं है किसी सृष्टि को।
उद्भव से पोषण तक देती है हर कृति को।
प्रकृति ही बन जाने की लिप्सा, अति है।
ब्रह्म-सिद्धान्त की तेरे द्वारा की गई क्षति है।
स्वागत है, तुम मेरे कोश से अमृत लो।
वर है, सभ्यता तेरी मानव,सुसंस्कृत हो!
अत्यंत गुणन,विभाजन,विकलन के बाद,
आदि शिव ने प्रकृति को किया सज्ज और आबाद।
उसके गुण,दोषों को निर्धारित,कर्म को स्थापित।
प्रकृति की रचना अत: समरूप है तथा संतुलित।
उसे छेड़ने से चुनती है प्रकृति शत्रुता।
बनाए रख मनुष्य वरदान की पात्रता।
तुम्हारी सत्ता को आज जो दे रहा है टक्कर।
तुम्हारे अस्तित्व को त्रास से बना देगा प्रस्तर।
हे मानव,प्रकृति के ज्ञान से समानान्तर ज्ञान करो प्राप्त।
उस ज्ञान की आत्मा से सामंजस्य हो तुममें व्याप्त।
तब ही ईश्वर बनने और सृष्टि करने की पाल लालसा।
बनता रहेगा ‘कोरोना’ अथवा आज जैसा ही काल सा।
जीवन रचने व नष्ट करने ज्ञान ही वह तात्विक प्रसाद है।
बिक्षुब्ध ज्ञान के पास होता नम्रता नहीं मात्र प्रमाद है।
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