ईश्वरीय विधान
साहित्यिक क्षेत्र में ज्यों-ज्यों मेरे कदम बढ़ते जा रहे हैं, संबंधों का दायरा भी उतना ही बढ़ता जा रहा है। जिसके अनेक बहाने भी होते हैं। जिसे अप्रत्याशित तो नहीं कहूँगा। क्योंकि साहित्यिक यात्रा में ऐसा होता ही रहता है। कभी हम किसी अंजान शख्स से आभासी माध्यम से बातचीत करते हैं, तो कभी किसी ऐसे ही अंजान शख्स का फोन आ ही जाता है। यूँ तो अपने-अपने क्षेत्र के लोगों से कभी न कभी पहली बार ये सिलसिला शुरू ही होता है, यह और बात है,जो आगे भी जारी रहता है और बहुत बार नहीं भी रह पाता। इसकी भी अपनी पृष्ठभूमि, कारण और परिस्थितियां होती है।
ऐसा ही कुछ १० मई’२०२४ को पड़ोसी राज्य की राजधानी से एक उच्च शिक्षित युवा कवयित्री से पहली बार साहित्य की एक विधा के बारे जानकारी के उद्देश्य से आभासी संवाद हुआ। सामान्य शिष्टाचार के बाद बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ, तो फिर आगे बढ़ता ही गया और सहयोग मार्गदर्शन की छाँव से होते हुए पारिवारिक होता गया। फिर तो जब तब आभासी संवादों का सिलसिला चंद दिनों में पूरी तरह पारिवारिक हो गया। उसका कारण भी तो है, उसने जो विश्वास जताया, सम्मान का भाव दर्शाया उससे मैं नतमस्तक होने को विवश हो गया।
एक बहन, एक बेटी के रुप में वो जिस तरह से उसने आधिकारिक पृष्ठभूमि के मध्य अपना अधिकार दर्शाया है, वह मुझे विचलित नहीं करता, बल्कि इससे मुझे उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी का बोध कराने के लिए सचेत जरुर किया। इतने कम समय में वह जितनी तेजी से मेरे साथ घर परिवार में घुलमिल गई, पूरी तरह परिवार का हिस्सा जैसा बन गई, वह ईश्वरीय वरदान सरीखा लगता है। क्योंकि कोई भी मातृशक्ति यदि किसी को यदि अगले जन्मों में पिता, भाई, बेटे के रूप में अथवा यदि कोई पुरुष किसी भी मातृशक्ति को बहन, बेटी, माँ के रूप पाने की ख्वाहिश करता है, तो ये स्वमेव तो बिल्कुल नहीं हो सकता। भले ही इस जन्म में उन दोनों के मध्य कितना ही आत्मीय और गहरा रिश्ता हो। ऊपर से जब रिश्ते आभासी हो तो यह भाव बिना ईश्वरीय मंतव्य के हो ही नहीं सकता।
उसके साथ पूर्वजन्म के रिश्तों का आभास कराता यह आत्मीय रिश्ता समय के साथ जिस तरह मजबूत होता जा रहा है, उसके लिए शब्द चित्र खींचना लगभग असंभव है। लेकिन एक बहन की तरह जिस तरह वह मेरे स्वास्थ्य को लेकर चिंतित दिखती है, मेरी सलामती की दुआ, प्रार्थना करती है, उससे प्रति नतमस्तक होना भले ही विवशता लगे, पर खुशियों का संवाहक भी है। वो भले ही दूर हो, पर दूर होकर भी पास ही होने का आभास कराती है। ऐसा क्यों है मुझे नहीं पता, लेकिन बड़ा होकर भी आत्मिक रुप से ही सही उसके कदमों में सिर झुका कर भी मैं गर्व का ही अनुभव करता हूँ। अब इसे ईश्वरीय विधान नहीं तो और क्या कहा जाएगा? यह आप सब स्वयं विचार करें।
उसने मेरे लिए अभी कुछ दिन पूर्व महज चंद पंक्तियों में अपने इस अग्रज के लिए जो मन के भाव लिखे हैं, उसे जितनी बार पढ़ता हूँ, हर बार आंखें भीग जाती हैं और मेरा सिर उसके सम्मान में स्वत: झुक ही जाता है। बड़ा होने के नाते उसकी खुशियों का वाहक बनना मेरी जिम्मेदारी है। ऐसे में उसके सिर पर मेरा हाथ सदैव आशीर्वाद के साथ ही स्वत: उठकर पहुँच जाता है और सदैव ही उठता रहेगा। जिसे मैं ईश्वर की कृपा मान शिरोधार्य करते हुए उसके सुख, समृद्धि और प्रगति की कामना करता हूँ।
हालांकि यह आपके लिए अप्रत्याशित और अविश्वसनीय जरुर हो सकता है, पर मेरे लिए यह स्वाभाविक सम्मान ही नहीं, गर्व की अनुभूति कराने वाला है। पिछले लगभग चार सालों से स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के बीच जीवन जब कठिन लगने लगता है तब साहित्य और आभासी दुनिया से जो संबल, समर्थन, मार्गदर्शन मुझे मिल रहा है, उससे मेरे जीवन की दिशा और दशा का सकारात्मक मार्ग ही प्रशस्त हो रहा है। जो मेरे जीवन का यथार्थ बनता जा रहा है। अब तो मुझे ऐसा लगता है कि यदि साहित्यिक क्षेत्र में मेरी सक्रियता न होती, तो आभासी दुनिया से ही सही मुझे इतना आत्मविश्वास और रिश्तों का इतना खूबसूरत संसार भी न मिलता, और तब मेरा जीवन अंधेरे की ओर और तेजी से ही गतिमान होता, क्योंकि इतने दिनों में अपने और अपनों के साथ का जो अनुभव है, वह किसी गहरे जख्म से कम पीड़ादायक नहीं है। लेकिन शायद इसीलिए ईश्वर ने स्वयं ही मुझे इतनी सारी परेशानियों और दुविधाओं के बीच विशेष बनाने की पृष्ठभूमि तैयार कर मेरी पीड़ा को ही संवाहक बना दिया है। खैर……ईश्वर की लीला वे ही जानें। हम सबको तो उनके इशारों पर कठपुतली की भाँति नृत्य करना ही पड़ता है, और हम सभी ये नृत्य चाहे- अनचाहे कर भी तो रहे हैं। क्योंकि जीवन महज एक कठपुतली की तरह है,जिसकी डोर परम सत्ता के साथ में हैं।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश