ईश्क़ जिसे लाचार कर दे मैं वो नहीं
ईश्क़ जिसे लाचार कर दे मैं वो नहीं
आँख को ख्वाबों से भर दे मैं वो नहीं
चाहिए तो बस तेरी नवाज़िश चाहिए
निस्बत हो जिसको दौलत से मैं वो नहीं
वो वक़्त कुछ और था वो आप ये ना थे
ये वक़्त कुछ और है तो ये मैं वो नहीं
मुझसे फ़ुर्सत की तो बात ही ना करना
भरी दुनियाँ में रहे खाली मैं वो नहीं
अक़्ल तो आती है खुद मुतालियात से
क़िताबों पे ही रहे मताहत मैं वो नहीं
निगाह-ए-करम चाहिए परवरदिगार की
दुनियाँ की चाहत जो पाले मैं वो नहीं
निभाना फ़र्ज़ हो की वादा कहती है ‘सरु’
जिसने सीखा हो मुकर जाना मैं वो नहीं