*ईर्ष्या भरम *
लेखक – डॉ अरुण कुमार शास्त्री
इन्सान का स्वभाव है ईर्ष्या करना ।
कोई – कोई होता है जगत में जानता जो प्यार करना ।
आपकी सफलता से सभी को मिल जाये खुशी ।
ये तो हो सकता नहीं कभी लिख लीजिए सभी ।
सबके अपने – अपने अनुभव हैं , सबकी पहचान अलग ।
ईश्वर ने निर्माण किया है हर जीव एक दूसरे से विलग ।
स्पर्धा हो ईर्ष्या न हो बात तर्क के आधार मानी जाएगी ।
जो कुढ़ता हो आपसे उस मनुष्य से मित्रता न हो पाएगी ।
निन्दा करता जो पुरुष उसका आचरण अहितकारी कहलाएगा ।
सन्त समाज में ऐसा मानुष सदा दुतकारा ही जायेगा ।
प्रेम से प्यार से सबको जो सम्मान देता आदर से ।
उस व्यक्ति का जगत में सभी खुशी से स्वागत करते ।
दुष्ट स्वभाव हो जिसका वो सब की प्रताड़ना ही पायेगा ।
काठ की हांडी सदा चले न एक दिन भेद तो खुल ही जायेगा ।
रामायण में मंथरा का किरदार सोचिए क्या कभी सराहा जायेगा ?
जिकर आएगा जब भी उसका हमेशा तिरस्कार ही वो पायेगा ।
ऐसा कोई क्षेत्र नहीं ईर्ष्यालू तो मिल जाते सभी जगह ।
बचकर रहना होगा आपको इनका संसर्ग सदा दुख दुविधा दे जायेगा ।
मुँह में राम बगल में छुरी , चाटुकारिता , होंठों पर मुस्कान है ।
ईर्ष्या युक्त मनुज के स्वभाव की भाइयों बस इतनी पहचान है ।