ईद
इस समाज में हर प्रकृति के लोग रहते हैं ।उदारवादी, संकीर्ण मानसिकता वाले कट्टरपंथी, और, आस्था को विज्ञान के पहलू से देखने वाले लोग भी हैं ।विभिनता में एकता की खिचड़ी कभी सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल पेश करती है, कभी बेस्वाद नीरस हो अपनी डफली अपना राग अलापने लगती है ।
यह बहुत कुछ राजनीतिक इच्छा शक्ति और उनकी समाज के प्रति प्रतिबद्धता ,निर्णय लेने के मंतव्य पर निर्भर करता है ।
हमारे जनपद में हिंदू -मुस्लिम बहुल आबादी है, सभी मिल जुल कर रहते हैं ।समाज में सभी धर्मों का समान आदर है ।वे एक दूसरे के पूरक बनकर अपना जीवन यापन करते हैं। रामू का परिवार मुस्लिम समुदाय के मध्य रहता है। वे अपनी आस्था अनुसार दिवाली ,होली आदि हिंदू त्योहार मनाते हैं, तो ईद शबे रात में शामिल होकर पड़ोसियों की खुशी के भागीदार बनते हैं। दोनों हिंदू मुस्लिम परिवार इस प्रकार से घुले मिले हैं, जैसे दूध के गिलास में शक्कर की मिठास घुली होती है ।
उनके पड़ोसी खान साहब नियम के पक्के हैं ।प्रात: उठकर नमाज अदा करने के बाद उनकी दिनचर्या शुरू होती है। वे पक्के नमाजी हैं ,और पांचों वक्त नमाज अदा करना अपना कर्तव्य समझते हैं ।ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होना उनका धर्म है ।अपनी नियत और ईमान साफ रखना प्रत्येक मुसलमान का धर्म है, यह उनका कहना है। अपने अपने कर्मों के लिए अपने सब अल्लाह के प्रति जवाब देह हैं। सबको अपने अपने कर्मों का हिसाब खुदा को एक दिन अवश्य देना होता है ।
खान साहब का एक पुत्र नुरुल है। घर में धन-संपत्ति की कोई कमी नहीं है उसके शानौ- शौकत में कोई अभाव नहीं दिखता। बड़े-बड़े स्टाइलिश केस विन्यास, फ्रेंच कट दाढ़ी, रंग रोगन, इत्र फुलेल की खुशबू, शानदार जरी का कुर्ता उसकी शान में चार चांद लगाते हैं ।उसकी शिक्षा-दीक्षा मदरसे से होती हुई महाविद्यालय तक हुई है।
कहते हैं,” संगत का बहुत असर होता है”। युवा समाज का भविष्य बहुत कुछ मित्र- मंडली और माता-पिता के संस्कारों पर निर्भर करता है। अच्छी संगत भविष्य सुधार देती है, तो कु संगत भविष्य अंधकार मय कर देती है।
खान साहब अपने पुत्र को अच्छी सीख देते थे ,किंतु नुरूल का मन उसमें अपना तर्क ढूंढता। खान साहब क्रोध में आकर कह देते- क्या काफिराना हरकत है ?बरखुरदार इतने बड़े अभी नहीं हुए हो कि तुम्हें ऊंच-नीच ,अच्छे बुरे की समझ आ सके। तनिक समझदारी से काम लो, हमारी बातों पर गौर करना सीखो। समझ में आए तो ठीक ,वरना अपना रास्ता नापो ।नुरुल अब्बा की बात पर खिसिया जाता। उसकी जिज्ञासा का समाधान नहीं हो रहा था। आस्था विश्वास जब तक वैज्ञानिक तथ्य से प्रमाणित ना हो ,तब तक काल्पनिक लगती है ।युवा इन विषयों को गंभीरता से नहीं लेते। उनके लिए हर एक चीज को तर्क की कसौटी पर खरा उतरना होता है। जबकि ,आस्था के लिए कोई तर्क नहीं होता है ।इंसान जन्म से एकेश्वरवाद पर विश्वास करता आया है। हिंदू धर्म की मान्यताएं नुरुल को कपोल कल्पना नजर आती। नुरुल को हिंदू देवी -देवता ,अवतार पूजा-पाठ सब ढकोसला प्रतीत होता। हिंदू धर्म इस्लाम से प्राचीन है ,उसके बाद भी उसे हिंदू कर्मकांड पर तनिक भी विश्वास नहीं था। वह हिंदू धर्म का कट्टर विरोधी था ।इस्लाम धर्म पर उसकी आस्था जन्मजात थी। वह इस्लाम धर्म को विज्ञान की कसौटी पर खरा देखता ।उसे इस्लाम धर्म के धार्मिक रीति-रिवाजों पर अटूट विश्वास था। उसकी कुरीतियों को जैसे की तैसे स्वीकार करने में उसे कोई झिझक नहीं थी ।यही उसके अब्बा हुजूर और उसमें मतभेद था। खान साहब उदारवादी थे ,उन्होंने दुनिया का तजुर्बा किया था। वे सभी धर्मों का आदर करते ,और उन्हें काफिर ना मानकर अपना सहयोगी मानते थे ।इस सत्य को सत्य स्वीकार करते थे उन्होने कभी हिंदू धार्मिक मान्यताओं से इनकार नहीं किया ,ना ही इस्लामिक मान्यताओं ,सामाजिक समरसता भाईचारे से उन्हें आपत्ति थी। किंतु नुरूल सामाजिक मान्यताओं के विपरीत सोच रखता था। नूरुल के दृष्टिकोण में इस्लाम धर्म सर्वश्रेष्ठ धर्म था ,और सभी को उसका अनुयायी होना चाहिए। नूरुल की संकीर्ण मानसिकता खान साहब का जीना हराम किए हुए थी।
नुरुल रोज बखेड़ा खड़ा कर देता , उसने मित्र कम शत्रु अधिक बना लिये थे। रोज हिंदू दुकानदारों से किसी ना किसी भी विषय पर विवाद करता, मारपीट तक की नौबत आ जाती ।खान साहब के नेक स्वभाव से सब वाकिफ थे। अतः उसके विरुद्ध कुछ कार्रवाई न करके, चेतावनी देकर छोड़ देते थे ।खान साहब पछता कर रह जाते ,किंतु ,निरूल के व्यवहार में अंतर नहीं आ रहा था।
एक दिन हिंदू परिवार का एक सदस्य हनुमान चालीसा का जोर जोर से पाठ कर रहा था। ऐसा रोज होता था ,किंतु एक दिन जब नुरुल उस घर के सामने से गुजरा तो उसे धार्मिक स्वर नागवार गुजरा ,उसने आवाज देकर मकान मालिक को बुलाया और कहा कि जोर-जोर से पाठ करना,बुतपरस्ती गैर इस्लामिक है। अतः धार्मिक पाठ घर में शांत रहकर करें, अन्यथा यह मोहल्ला छोड़ना होगा। यह बात पूरे जनपद में आग की तरह फैल गई। कुछ धार्मिक संगठन इस घटना के विरोध में लामबंद होने लगे ।इसे अपनी धार्मिक स्वतंत्रता पर कुठाराघात मानने लगे ।स्थिति तनावपूर्ण हो गई ।आखिर एक दिन दोनों पक्ष आमने-सामने आ खड़े हुए। दोनों पक्षों के हाथ में अस्त्र-शस्त्र थे। अपने अपने धर्म गुरुओं को आगे रखकर सब ने अपने अपने तर्क रखे। इस्लाम धर्म के मौलाना साहब ने नुरुल के सारे तर्क खारिज कर ,इंसान की नेक नियत और इंसानियत पर जोर दिया ।उन्होंने संकीर्ण मानसिकता वाली, केवल इस्लाम धर्म को मानने के तर्क को सिरे से खारिज कर दिया ।और धर्म आचरण करने वाले प्रत्येक जाति धर्म के लोगों को अपने समकक्ष धार्मिक और ईश्वर पर विश्वास करने वाला बताया। उन्होंने नुरुल को सत्य ना स्वीकार कर सत्य से इनकार करने पर अपने पिता खान साहब से माफी मांगने कहा ।उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा अगर दोबारा ऐसी घिनौनी हरकत की ,तो वे उसे समाज से बेदखल करने में तनिक भी नहीं हिचकेंगे। यह मोहल्ला सभी का है ,सब आपस में भाई -भाई हैं ।खुदा के नेक बंदे हैं। इसके बाद सब गले मिले और अपने गिले-शिकवे भूलकर अपने अपने काम में लग गए ।
रमजान का पवित्र महीना आया। सब ने पवित्र मन से रोजे रखे ।नुरुल के लिए रमजान का यह पवित्र महीना खास था। उसने प्रायश्चित करने की ठानी ।उसका विवेक जागृत हो चुका था। उसे इंसानियत की पहचान हो गई थी ।उसने ईद के मौके पर उन हिंदू परिवारों को सेवई भोज हेतु आमंत्रित किया । सब परिवारों ने मिलजुल कर भाईचारे का त्योहार ईद धूमधाम व सौहार्द से मनाया ।सब गले मिले। उनके बीच अब कोई मतभेद नहीं था।
मानवता से बड़ा धर्म कोई नहीं है सद्भाव, सदाचार ,सम्मान पूर्वक जीवन यापन, सामाजिक समरसता और मानव सेवा इसके अपरिहार्य अंग है। ईद भाईचारे और खुशियों का त्योहार है। हम सब को बढ़-चढ़कर भाईचारे के त्यौहार को वैसे ही मनाना चाहिए जैसे हम होली दीपावली का त्यौहार मनाते हैं।
डॉ प्रवीण कुमार श्रीवास्तव प्रेम
बलरामपुर
मौलिक रचना।