ईंटों का ढाँचा घर नहीं होता
सही हो वक़्त तो फ़िर कोई डर नहीं होता
अँधेरी रात में अच्छा सफ़र नहीं होता
हजार दूरियां मिलती हैं एक छत के तले
हरेक ईंटों का ढाँचा भी घर नहीं होता
सँवारती हैं किताबें बशर के जीवन को
कि इनके जैसा कोई राहबर नहीं होता
सुलगती धूप में तपती हुई हैं ये राहें
न मिलती छाँव अगर ये शजर नहीं होता
गुज़रती क्या है किसी दिल से पूछिए ‘सागर’
वफ़ाशियार अगर हमसफ़र नहीं होता