इश्क़ रुहानी चढ़ बोला
अब इश्क़ रुहानी चढ़ बोला।
इक द्वार अनौखा आ खोला।।
आ बैठे तेरी कश्ती में ।
हम झूम रहे हैं मस्ती में।।
हृदय बिच तेरा डेरा है।
औ तू ही साँझ सवेरा है।।
तू मात पिता तू दाता है।
हम सबका भाग विधाता है।।
जीवन मेरा इक गाड़ी है।
जो आज धरा पर ठाढ़ी है।।
इक बात अटल है साँची है।
तू आदि अंत अविनाशी है।।
ये जग तुझसे ही चलता है।
तेरी रहमत से पलता है।।
तू माँझी है इस नइया का।
तू गोपाल मुझ गइया का।।
मैं तेरी मधुर मुरलिया हूँ।
राधा सी एक गुजरिया हूँ।।
मैं कलम बनी हूँ हाथों की।
सुर सरगम तेरे साजों की।।
बिन मौसम के तन मन डोला।
है ऐसा अमृत आ घोला।।
अब इश्क़ रुहानी चढ़ बोला।
अब इश्क़ रुहानी चढ़ बोला।।
© डॉ०प्रतिभा ‘माही’ पंचकूला