इश्क
दरिया ए इश्क मे जबसे उतर गया हूँ
कुछ जिंदा हूँ और कुछ मर गया हूँ
एक तेरे दर ने ही ठुकरा दिया मुझको
वरना सजदा ही मिला है जिधर गया हूँ
बनाने निकला था सपनो का आशियाँ
इसी जद्दोजहद मे मैं हो बेघर गया हूँ
जबसे मिला है गम ए उल्फ़त मुझको
सच कह रहा हूँ ये कि मैं निखर गया हूँ
मंजूर नही था झुकना जमाने के आगे
बस इसीलिए मैं टूटकर बिखर गया हूँ
हवस मे लूटती देखी जो मोहब्बत
कसम से कविता मैं सिहर गया हूँ