” इश्क़ “
“इश्क़”
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तू इकरार से अच्छा इन्कार करती है
खनकती रागिनी तेरी सौ सवाल करती है
छिपा दिल के झरोखों में निगाहें मुस्कुराती है
माना दिल अभी बच्चा है मेरा जानेमन पर
धड़कने सलामती की तेरी ही फरियाद करती है।
शबनमी होंठो की पंखुडियां गुलाब लगती है
छलकते होंठो से शबनम शराब लगती है
छनकती पायल की रुन-झुन सितार लगती है
झटकती जुल्फों को अदाओं से सावरी तुम
बंजर दिल-ए-बस्ती में इश्क की बरसात करती है।
घटाए तेरे जुल्फों की छायी सुबह शाम रहती है
हवा के झोकों की खुशबू बदन से तेरे चलती है
नशीली आंखों में खोकर सुबह से शाम होती है
लूटी दिल की बस्ती पीला के होठों से मधुशाला
गवां के चैन दिल का निगाहें सुकून ढूंढ़ती है ।
हुस्न का चर्चा जब भी हो तेरी ही बात चलती है
खिली है पूनम की जो रात वहीं तू चांद लगती है
चमकती माथे की बिंदियॉ तेरा ही सूरज लगती है
सुनहरे बालों को ऐठे मचलती हिरनी की जैसी
चला के बान नैनो से फिजा में घायल करती है ।
“‘””””””””सत्येन्द्र प्रसाद साह (सत्येन्द्र बिहारी)'”””””””””