इश्क़ नहीं हम
इश्क का मारा हूँ
इश्क नहीं
न ही प्यार कभी
क्या है ये ?
सब सौंदर्य पर
सौंदर्य को पाने
आलिंगन के सपने
वदन को पाने
तृप्ति नहीं
फिर क्या मलाल है !
जानता हूँ मगर
सौंदर्य नहीं मुझमें
मगर सौंदर्य को ही
सदा खोजता हूँ मैं__
रहता मन में
पा लूँ मैं रम्बा हो
या मेनका
पर मिलता कहाँ
यह भोग तो
पाता कोई ओर ही !
महफ़िल देखता
कहूँ तो आदत है
बन गई है
गलत मत कहना मुझे
यह मैं नहीं
यौवन का हुँकार है
पर स्पर्श की अनुभूति नहीं
होती स्पर्श सिर्फ अचिन्त्य के
पर कुछ न स्वयं को उत्सर्ग
मधु के पान करने को
{ यह मधु मधुकर के नहीं
यह मत समझना, समझे
अपितु ये यौवन के पान }
मिलता उसी को अब
जिसे धन का है ताज
भूख के दुर्दिन है जिसे
उसे इसके बुखार नहीं
इश्क प्यार मोहब्बत के__
वो तो स्वयं फटेहाल है
किसे, क्यों, किस भोग विलास के !…
लेखक :- वरुण सिंह गौतम