इल्ज़ाम
सबकुछ देखकर भी आपने, अनदेखा कुछ ऐसे किया,
मेरी परछाइयाँ भी मुझे, अपना कहने से कतराती रही ।
गुमान कम न था मुझे, आपकी वफ़ा-ए मोहब्बत पर,
फिर भी आँखें मेरी, दास्ताएँ दर्द बयाँ करती रहीं ।।
मेरी हर दलील पर, महफिल में गुफ्तगू होती रही,
आपने खामोशी से ‘इल्ज़ाम’ हमपर लगने दिए।
इश्क नहीं, हमने तो इबादत की थी आपकी,
और आप बेरहमी से मेरे ज़ख्मों को कुरेदते गए।।