इलाका इंसानी जमात का
सिर पर टोपी लगा लूँ तो क्या..
भगवा गमछा कंधे पर डाल लूँ तो क्या..
गर्दन में पहन लूँ क्रोस यीशु का..
या फिर माथा टेक दूँ
पवित्र दीवार यहूदी पर..
और कृपाण धारण कर
बौद्ध बनकर लूं मुस्कान होठों पर..
या फिर बनकर जैन लूँ द्रण संकल्प जीवन का
तो क्या..
या बनकर नास्तिक,
रख दूं तेरे भगवान को किनारे पर,
रचा लूं शादी किसी विधर्मी से,
अपने दिल के इशारे पर..
किसी जरूरतमंद को कर दूं खून दान,
बिना किसी सोच मजहब के,
या पेट भर दूं किसी अनाथ बच्चे का,
इंसानियत के लहजे से..
या फिर लेकर जिहाद का नारा,
किसी मासूम के गले पर खंजर रख दूं,
जय श्रीराम बोलकर मैं,
मोब लिंचिंग को सही साबित कर दूं..
तुम चाहते हो क्या..
गले में डालकर खंजर,
सिर पर पहनकर टोपी,
माथे पर लगाकर त्रिपुंड का टीका..
इंसानियत के लिए हिटलर बन जाऊं,
या अंगुलिमार का बुद्ध कह लाऊं..
मन्दिर चला जाऊं
तो मस्जिद जा नही सकता,
चला जाऊं चर्च तो,
गुरुद्वारे की सीडी चढ़ नही सकता..!
ये क्या कर दिया है तुमने,
इंसानी जमात का,
क्या बन गए हो कुत्ता,
और खींच लिया इलाका आने-जाने का..?
तुम लड़ रहे हो जिसके लिए,
क्या उसे मालूम भी है,
अभी बैठा है वो शांत इसका तुमको भान भी है..!
अगर उनमें ऊपर हो गया झगड़ा तो समझ लेना,
हाथीयों की लड़ाई में कुचल जाओगे चींटी की तरह समझ लेना…
ना बचेगा मजहब,
ना बचेगा तू,
ना रहेगा वो,
ना रहेगा तू…..।।।
प्रशांत सोलंकी
नई दिल्ली-07