इम्तेहान
बात उन दिनों की है जब हम साइकिल से स्कूल जाया करते थे बड़े मजे के दिन थे उन्ही में से एक किस्सा आज याद आ गया तो सोचा बात ही दूँ शायद बाकियों की यादें भी ताज़ा हो जाऍं
एक दिन यूँ ही मज़े मज़े में घर से निकले सड़कें अमूमन खराब ही होतीं थीं डी. ए. वी. कॉलेज के ढाले से साइकिल चढ़ाई ढलान के उस पार ब्रेक लगा कर धीरे धीरे उतरते हुए जाने कैसे साइकिल एक सज्जन की दोनों टाँगों के बीच पहुँची तो हड़बड़ा कर ब्रेक मारा सज्जन इसलिए कहा कि उन्होंने सफेद कुर्ता पायजामा पहन रखा था साइकिल टाँगों तक पहुंचने के बाद भी एक लफ़्ज़ भी उन्होंने मुझ पर खर्च नहीं किया या तो हद से ज़्यादा शरीफ थे या कुछ मेरी शक्ल ही इतनी मासूम सी थी कि घबराहट भांप कर उन्होंने साइकिल से खुद को आज़ाद किया और निकल लिए
मामला वहीं रफा दफा हो गया
लेकिन जाने क्या था उस दिन की स्कूल से वापस लौटते हुए स्टेशन के सामने के चौराहे पर फिर से मेरी साइकिल उन्ही सज्जन के दोनों टाँगों के बीच पहुँच कर रुकी दोनों बार ब्रेक सही वक्त पर लगे उन्हों एक खरोच तक न आई
इस बार भी उन्होंने अपनी टाँगों के बीच घुसे टायर से रिहाई हासिल की और चले गए
तो पक्का यकीन हो गया सज्जन ही थे वरना ऐसे कैसे जाने देते
पर खुदा ने भी उनकी सज्जनता का जिस तरह मेरे ज़रिए इम्तेहान लिया अजीबोगरीब था