इन्द्रधनुष
इन्द्रधनुष
सप्त-रंगो के ओज ने
प्रभावित तो किया।
जीत नही पाये उसका
नन्हा सा जिया।
चाह थी मन को जिस रंग की
ज्यो की त्यों रही।
स्वर्णिम चमक भी देखो
ना-उम्मीद सी खड़ी।
हीरक ने बांह पसार कर
ललचाया बहुत उसे।
वह हुई नही टस से मस
बन बुत सी खड़ी।
न जाने कैसी जिद्द है
किस बात पर अड़ी।
बांह थामे स्वाभिमान की
वह पग-पग बढ़ी।
संग साथ नन्हा साहस
तन्हा मगर खड़ी।
अति-अंन्तर्मुखी वो बाला
संकोच की लड़ी।
बन के मीत स्वयं का
ले स्वप्न की झड़ी।
पाने को इन्द्र-धनुषी रंग
कर-तल लिए नई।
सुधा भारद्वाज
विकासनगर