इतना मत चाहो
इतना मत चाहो के
प्यार जंजीर बन जाए
इतना मत चाहो के
प्यार लकीर बन जाए
जंजीर बना प्यार तो
जकड़ जायेगा
लकीर बना प्यार तो
अकड़ जायेगा
दोनों ही हालात में
प्यार प्यार नहीं रहेगा
न मैं रहूंगा न तुम
वर्जनाएं टूट जाएंगी।
वैसे भी अब टूटने को
बचा ही क्या है…..
मूल्य/ मर्यादा/ मान
सम्मान/ समाज
सभी तो स्तंभित हैं
कंपित है/ अचंभित हैं।
पीढियों का अंतर निरंतर
देख रहे हैं…
दर्पण चटक रहे हैं
चेहरे उलझ रहे हैं।
और…..!
प्यार…..!!
सिर्फ शब्द रह गया है
प्रवाह में नदी के….
बह गया है ।
अपने में खो गया है।।
जंजीर और लकीर
माना के उपमा हैं….
पर तेरे-मेरे दिल की
यही तो प्रिये उपमा है।
पैर बंधे हुए हैं….
जुबां सिली हुई
आंखें स्थिर….
दिल में कुछ और
जुबां पर कुछ और
यही विवशता है
यही लक्ष्मण रेखा
त्रेता में भी उल्लंघन
कलियुग में भी उल्लंघन।।
सूर्यकांत