इतना डर क्यो ?
भय किससे,किसको ,किसलिये
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थम सा गया है,
यह जन जीवन ,
यह मचलते तन,
पार्लर जाते बदन,
उछलता यौवन,
शरारती बचपन ,
कक्ष में रम सा गया है
थम सा गया है।
यह जज्बाती मन,
यह चलायमान धन,
यह सुलगते प्रश्न,
राजनीतिक जतन,
यह सारा सयानापन ,
सब सहम सा गया है।
बस थम सा गया है।
यह ग्रामवीथी में जन,
वणिक वीथी में धन ,
ये जन मन गण,
मादरे वतन,
जम सा गया है।
बस थम सा गया है।
बड़े बड़े जो जीव,
बनाते एटम बम,
न डरे आसमानों से,
न डरे तूफानों से ,
रण के बाँकुरे ,
आतंकी सिरफिरे ,
कब किससे डरे,
मन मे आये जो करे,
एक सूक्ष्म जीव ने ,
सब अक्षम सा किया है।
सब थम सा गया है।
अंत मे एक प्रश्न
इतना भय किस से ?
अपने आप से ,
डर किस बात का ,
मौत का ?
स्वयं की ,या किसी की?
परिवार की —- समाज की…
वतन की … मानवता की..
फिर किस की ?
किसके लिए ?
यक्ष प्रश्न बन सा गया है।
सब कुछ थम सा गया है।
© कलम घिसाई