इज्जत
इज्जत सरे बाजार नीलाम होती
वो दुकान शायद मुझमें ही है
साँझ पक्षी वापस घर लौटते है
वो घोसला शायद मुझमें ही है
सावन के मास सूने सूने से होते
वो झूले शायद मुझमे ही है
हर कदम पर कमीनापन दिखता
वो इन्साफ शायद मुझमे ही है
राजनीति गलियारा गन्दा दिखता
वो सफेदा शायद मुझमें ही है