इच्छाओं से दूर खारे पानी की तलहटी में समाना है मुझे।
इच्छाओं से दूर खारे पानी की तलहटी में समाना है मुझे,
क्षितिज के रंगों की रंगहीनता से खुद को रंगवाना है मुझे।
यूँ तो होती है सुबह, हर गुजरते रात की,
पर जिसकी कभी फिर सुबह ना आये, उन अंधेरों में खो जाना है मुझे।
अंतर्मन के तूफानों से खुद को बचाना है मुझे,
जहां हवाओं का बसेरा ना हो, वैसे मैदानों का हो जाना है मुझे।
एहसासों की शून्यता में सबकुछ भुलाना है मुझे,
निःशब्द सूनी सी एक बस्ती में घर बसाना है मुझे।
वो किरदार जो कहानी से कभी जुड़ ना सका,
उसकी आँखों में बची बूँद बन बरस जाना है मुझे।
ज़हरीली ओस टपकती है जो हर क्षण छत से मेरी,
उसे ज़िन्दगी के प्यालों में भरकर पी जाना है मुझे।
स्याह वन है जो निर्ममता की परिभाषा है बना,
उसकी अदृश्य पगडंडियों पर खुद को चलाना है मुझे।
हर पल चुभती है ये सांसें धड़कनों को मेरी,
अब बिना धड़कनों के हीं, इन साँसों से रिश्ता निभाना है मुझे।