इच्छाओं की आग लगी है
इच्छाओं की आग लगी है,
रद्दी भरे खयालों में I
नेकी -उत्तर छिपे हुए हैं,
उलझे बदी सवालों में ।
ऊबड़-खाबड़ कर्म – राह पर,
चलते मूँदे आँखों को।
देती जीवन की हरियाली,
उम्र सूखती शाखों कों ।
फिर भी हँसता
बाग बना नही,
मन है पड़ा अकालों में ।
पड़ी है सबको अपनी – अपनी,
रंग न दूजे का चढ़ता।
आज कवि है महज़ मरीचिका,
पढ़वाता कभी न पढ़ता I
सब अनुकूल
नही होता तो,
कुण्ठा घिरती बालों में ।
सब पाने की आपाधापी,
ठोकर बनती गलियों की ।
आकर जहाँ निराशा हँसती,
जैसे काँटें कलियों की ।
स्वार्थ फँसा है
स्वयं बनाये,
उलझन की जंजालों में।