इक मोहब्बत की वो ज़न्जीर बना ली जाए
इक मोहब्बत की वो ज़न्जीर बना ली जाए
जिससे फिर बाँध के नफ़रत भी ये डाली जाए
दर पे मौला के कोई जब भी सवाली जाए
लौटकर है न ये मुमकिन कि वो ख़ाली जाए
जब अदावत या बग़ावत न हुई उल्फ़त में
आबरू क्यूँ न मोहब्बत की बचा ली जाए
आप नज़दीक किसी वक़्त हमारे आओ
इक दफ़अ रस्मे मोहब्बत भी निभा ली जाए
आपके बिन है अँधेरा सा हमारे दिल में
क्यूँ न यादों से कोई शम्अ जला ली जाए
कोई समझा ही नहीं प्यार को दुनिया में कभी
ग़म भले दिल में हंसी लब पे सजा ली जाए
काम ‘आनन्द’ सँवरते हैं इसी आदत से
आज की बात कभी कल पे न टाली जाए
~ डॉ आनन्द किशोर