इक मुहब्बत का पैग़ाम है
इक मुहब्बत का पैग़ाम है
दे दिया जो खुले-आम है
हम भलाई में कूदे हैं ज्यों
त्यों लगा हम पे इल्ज़ाम है
नाम जिसका भी ऊँचा किया
कर रहा वो ही बदनाम है
ठोकरों में उछाला सदा
दिल तो जैसे बिना दाम है
ज़ीस्त में उसकी नाकामियाँ
जो मुहब्बत में नाकाम है
क़त्ल जिसने किये बारहा
घूमता वो सरे-आम है
मौत के बाद फ़ुर्सत मिले
ज़िन्दगी में न आराम है
जो भी ‘आनन्द’ नेकी करे
वो ही इन्सान गुलफ़ाम है
शब्दार्थ:- गुलफ़ाम=अत्यंत सुंदर
– डॉ आनन्द किशोर