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20 May 2022 · 1 min read

इक मुलाक़ात इक नज़र

इक मुलाक़ात इक नज़र के लिए।
है तरसती दुआ असर के लिए।।

बस मेरी ही नज़र से पर्दा है,
उनके दीदार हैं शहर के लिए।

मालिके-ख़ुल्द ! काश हो जाये
इक निगाहे-करम इधर के लिए।

बेबहर ही रहीं मेरी ग़ज़लें,
लाख तोड़ा किए बहर के लिए।

वो मेरे दिल के जो हुए मेहमां,
रह गये हाय! उम्र भर के लिए।

ये तमाशाइयों की बस्ती है,
टूट जाओगे तुम सिफ़र के लिए।

वो ख़ुदा ख़ुद को मान बैठे हैं,
जो तरसते थे बामो-दर के लिए।

जो मता-ए-ग़ज़ल बिखेरी है,
आ समेटें इन्हें सफ़र के लिए।

साथ दुनिया के रह लिए दिन भर,
लौट आओ ‘असीम’ घर के लिए।

✍️ शैलेन्द्र ‘असीम’

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