इक बार आ ।
ज़ख्म पे मरहम लगाने के लिए आ ।
फिर से इक बार लौट जाने के लिए आ ।
बड़ा मग़रूर हु मैं अपनी नींद में आजकल
इक बार तू मेरी नींद उड़ाने के लिए आ ।
रोज़े सारे रखें है तेरे बग़ैर ही हम तो
हो सके तो तू ईद मनाने के लिए आ ।
कई महीने बीत गए तेरे दीदार के ख़ातिर
इक बार खिड़की पे चेहरा दिखाने के लिए आ ।
मेरी फ़ितरत में ही लिखा है दर्द अब तो
मेरे हिस्से में फिर दिल दुखाने के लिए आ
मैं मुद्दतों से तन्हा बसर कर रहा हु यहां
इक बार तू मुझें गले लगाने के लिए ।
– हसीब अनवर