इक नज़्म
इक नज़्म
जब भी तू नाम उसका गुनगुनाता है
तुझमें चाहत का समंदर लहराता है
गुम गई हो जैसे चीज तेरी कीमती
तू हसरतों का दरिया नजर आता है
बातों से ख्यालों से वो जाता ही नहीं
तुझमें जैसे वो जादू सा इक रचाता है
उसके हाथ उसकी छुअन अकेले में तू
वक्त की नदी में प्यास सी जगाता है
यादों की बिखरी हुई सुनहरी धूप में
इश्क का ज़र्रा ज़र्रा यूँ ही इतराता है
गुजर ही गई है ज़िदगी बिना उसके
अब भी वो दिन रात तेरे महकाता है