इक दिया जलाने जाना है
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जीर्ण हुआ, चाँद अब नभ में,
इक दिया जलाने जाना है;
सूझ रहा ना रातों में कुछ,
जग रौशन करने जाना है।
चाँद का, अस्तित्व जिलाने को,
बुझती आँखें खुलवाने को;
चंदा के घर को जाना है,
इक दिया जलाने जाना है।
जग घूमा, सारा नभ देखा,
तक कर सागर औ’, गिरि देखा;
खोह, गुफाओं की गोदी में,
चंदा भी मैं, बहु विधि देखा।
बढ़ती उमर, शक्ति है कमतर,
पग-पग वह आहें भरता है;
निर्जन रातों का श्रमित पथिक,
असहाय दृगों से तकता है।
विवश निगाहें देख रही हैं,
निज काया का अब अंत रूप;
एकाकीपन खाता है उसे,
जिसने सँवारा रैन अनूप।
उमर बीतती है यह कैसे,
वह ख़ुद भी ना पहचाना है;
चंदा की बुझती आँखों में,
इक दिया जलाने जाना है।
अनेक कलाएँ होतीं तेरी,
दिये, असफल गर हो जाएँगे;
निराश ना हो चंदा मेरे,
खद्योत भी लेकर आएँगे।
चहुँओर बजेगी, डंका अब,
तेरे शौकत और शान की;
चाँद जरा निश्चिंत रहो अब,
हठ छोड़ो निजी पहचान की।
कुरूप नहीं भेष तुम्हारा,
तुम सदा सुधा बरसाते हो;
नैन किवाड़ों से प्रविष्ट हो,
मन कानन में बस जाते हो।
दीप तुम्हारे हेतु एत सा,
चंदा, हम संग ले आएँगे;
नाम गर्व से रौशन होगा,
दिये, तेज जलाने आएँगे।
अंजुम को, गर पड़े जरूरत,
पहले ही तुम बतला देना;
अनेक दिये लेकर आएँगे,
तुम उनकी बाट बता देना।
चलते फिरते तारों को भी,
खद्योत रौशनी देंगे अब;
तेरी कुटुंब चिंता सारी,
मिलकर हम सभी हरेंगे अब।
…“निश्छल”