इक तेरी ही आरज़ू में
इक तेरी ही आरज़ू में
कभी दिन ढल जाए
कभी पलकों में रात ठहर जाए
रात की तन्हाई भी
जाने क्यों हुई आज बेवफा
गीत कोई गुनगुनाकर
गहरी नींद में धकेल दिया मुझे
इधर मदहोशी का आलम ये था
कानों कान खबर न हुई
कब रात अंधेरी ढली
कब चहकती भोर घर से चली
कोई पहली बार नहीं
हर बार हुआ है ये सिलसिला
मगर करूं भी तो क्या करूं
कोई राह भी अब नज़र आती नहीं
तुझे पाने की आरज़ू के सिवा
सच, कितना महंगा सौदा है
किसी अजनबी से यूं दिल लगाना
मगर क्या करूं, दिल है कि मानता नहीं
बड़ा जिद्दी है ये कमबख्त
मनाने से मानेगा नहीं
शायद इसीलिए हर शाम
रखता हूं दिल में बस यही आरज़ू कि
तेरे कदमों की आहट हो
इस दिल कि चौखट पर और
डूब जाऊं तेरे इंतज़ार की
खुशनुमा यादों में