इक्यावन दिलकश ग़ज़लें
(1)
होश में कैसे रहूँ जब रू-ब-रू तू
आई’ना देखूँ तो हैराँ हू-ब-हू तू
रूह मेरी और तेरी एक है यूँ
मुझसे मेरी होने वाली गुफ़्तुगू तू
इस कदर छाया हुआ है इश्क़ तेरा
है ज़मीन-ओ-आसमाँ में कू-ब-कू तू
तू परी है या है तितली उड़ने वाली
या महब्बत की है कोई आबजू तू
उड़ चले यूँ इश्क़ में हम दो परिन्दे
आसमाँ को छूने वाली आरज़ू तू
•••
_________
रू-ब-रू — सामने, आमने-सामने (तू)
हू-ब-हू — बिल्कुल, बिल्कुल ठीक (तू)
गुफ़्तुगू — वार्तालाप, बातचीत (तू)
कू-ब-कू — सर्वत्र (तू)
आबजू — नदी/नहर/धारा (तू)
आरज़ू — इच्छा, ख़्वाहिश, मनोकामना, चाहत (तू)
(2)
हालात पे रो न सके
ताउम्र ही सो न सके
जो डूबे विरह में हम
फिर तुझको खो न सके
ये खेत रहा बन्जर
जी में वफ़ा बो न सके
ताउम्र रहा ये ग़म
तुम मेरे हो न सके
दूर रही गंगा जी
पाप कभी धो न सके
•••
(3)
ख़्वाब टूटे तो दिल ये जलता है
आप रूठे तो दिल मचलता है
आप भोले हो, आप क्या जानो
रिश्ते सड़ जाएँ, प्यार गलता है
साथ गर उम्रभर को मिल जाये
तो बुरा वक़्त हाथ मलता है
छल कपट घात कोई जानूँ ना
तोडना दिल मुझे न फलता है
हिज़्र में शामे-ग़म कटे कैसे
ऐ खुदा तड़पे वो जो छलता है
•••
(4)
मैं तो हिन्दू न मुसलमां जानूँ
आदमी हो तो आदमी मानूँ
बैर जग में किसी से रखना क्यों
कोई भी रार ना जी में ठानूँ
वो है ज्ञानी जो समझे उल्फ़त को
प्रीत के ढाई लफ़्ज़ मैं मानूँ
लड़ते भी हैं वो प्रेम भी करते
राम रहिमान दोउ को जानूँ
अपने हैं सब, न कोई बेगाना
तुम खुदा कहते, राम मैं मानूँ
•••
(5)
बज़्म में छा जाता हूँ
जब शे’र सुनाता हूँ
मुँह फेरे है दुनिया
शीशा जो दिखाता हूँ
हैं क़ैद कई यादें
जिनमें खो जाता हूँ
मातम हो या खुशियाँ
गीत ग़ज़ल गाता हूँ
नींद से बाहर भी मैं
कुछ ख़्वाब सजाता हूँ
•••
(6)
कोई सपना महब्बत का बुनता रहा
इश्क़ अपना सफ़र तय यूँ करता रहा
तुम परी हो मुझे ये यक़ीं हो चला
दिल की जन्नत से जब मैं गुज़रता रहा
यूँ मिले तुम मुझे बन गए ज़िन्दगी
जी में उल्फ़त का मौसम निखरता रहा
तुमको बरसों बरस चुपके देखा किये
बे-वज़ह मैं ज़माने से डरता रहा
तुम वहाँ रात दिन खुद में सिमटे रहे
मैं यहाँ अजनबी डर से लड़ता रहा
दिल के अहसास कैसे बयाँ मैं करूँ
टूटकर अपने डर में बिखरता रहा
•••
(7)
दर्द को अब पी रहा हूँ
मैं दुखों में जी रहा हूँ
ओढ़ ली खामोशियाँ अब
होंठ अपने सी रहा हूँ
भीड़ थी जिसमें हरदम
मैं अकेला ही रहा हूँ
ज़हर नफ़रत का घुला जब
मैं तमाशायी रहा हूँ
आदमी लिपटा कफ़न में
मैं ही कातिल भी रहा हूँ
•••
(8)
कहने को ज़िन्दगी का मेला है
भीड़ में हर कोई अकेला है
डर उसे जान जाने का नहीं कुछ
इश्क़ का खेल जो भी खेला है
इश्क़ ने मुश्क़िलें ही पैदा कीं
ये सितम उम्रभर ही झेला है
हिज़्र में नींद थी कहाँ इक पल
रो के हालात को धकेला है
उम्र तन्हाइयों में ही ग़ुज़री
आशिक़ी बे-वज़ह झमेला है
सोचता हूँ कभी कभी तन्हा
ऐ महावीर क्यों ये मेला है
•••
(9)
ज़िन्दगी अच्छी मुझे लगती नहीं
रौशनी यारब कहीं दिखती नहीं
अंत तक है भागना ही ज़िन्दगी
दौड़ से फ़ुरसत कभी मिलती नहीं
हो खुशामद, कोई अर्ज़ी शाह की
तेरे आगे ऐ खुदा चलती नहीं
मौत की आगोश में है ये जहां
कौन सी है चीज़ जो मिटती नहीं
झूठ मीठा बोलिये हरदम मगर
बात कड़वी भी कभी खलती नहीं
पाप कितना ही करो संसार में
कलयुगी है ये ज़मीं फटती नहीं
मोक्ष की ही कामना में जो जिए
कोई शय उनको यहाँ छलती नही
क़ीमती ईमान है सबसे बड़ा
चीज़ ये बाज़ार में बिकती नहीं
इश्क़ को पूजा है मैंने माफ़ कर
ऐ खुदा शायद मिरी ग़लती नहीं
•••
(10)
कुछ सच, कुछ झूठ यहाँ फैलाये रक्खो
जग में अपना अस्तित्व बचाये रक्खो
होता आया था जो, हो रहा है अब भी
खेल मदारी में ही उलझाये रक्खो
सदियों से करते आये शाह यही तो
जो भी हक़ माँगे, उसको सुलाये रक्खो!
सच था, सच है, सच ही रहेगा हरदम ये
सबको मज़हब की अफ़ीम चटाये रक्खो
कल भी मरता था ये, आगे भी मरेगा
बस मुफ़लिस को जाहिल ही बनाये रक्खो
•••
(11)
ये वादा किया जान, मतवारी रात में
कि दोनों न बिछड़ें, कभी इस हयात में
है नेमत खुदा की, ये आदम की नस्लें
नहीं कुछ भी रक्खा है, इस धर्म-ज़ात में
न परदा हटाओ, अभी रुख़ से जानाँ
कि निकले न ये दम, कहीं चाँद रात में
दिवाना करे यूँ, महक मुझको तेरी
बहक जाऊँ मैं अब तो, हर एक बात में
महब्बत की रस्में, न जाने सियासत
यहाँ शह-ओ-मात की, बिछी हर बिसात में
•••
(12)
चाचा ग़ालिब सबसे आला
शा’इर का हर शेर निराला
याद हमें दीवाने-ग़ालिब
उस्तादे-अदब* से पड़ा पाला
है कठिन बहुत ग़ज़लें कहना
शे’र नहीं, लफ़्ज़ों की ख़ाला**
ग़ालिब जैसा शेर कहो तो
खुल जाय मियाँ अक्ल का ताला
उस्ताद को जो मुश्क़िल कहते
उनकी अक्ल है मकड़ी ज़ाला
•••
__________
*उस्तादे-अदब — साहित्य के गुरू से
**ख़ाला — मौसी
(13)
कितने तीर नज़र के खाये
तब तेरे पहलू में आये
मुझको जादू में बाँध दिया
कितनी प्यारी हो तुम हाये
जब-जब छवि में देखूँ तोरी
तब-तब मोरा जी ललचाये
प्रेम नगर में बसना अच्छा
जब जब सोचूँ मन भर आये
दूर कहाँ फिर रहना मुमकिन
पहलू में जब क़िस्मत लाये
•••
(14)
दिल जला तो बुझा दिया मैंने
इश्क़ को ही मिटा दिया मैंने
उस परी का जमाल कैसे कहूँ
दिल फ़रेब थी, भुला दिया मैंने
दिल की बस्ती उजड़ गई यारो
हाय सब कुछ लुटा दिया मैंने
ग़म मुझे खूब था मगर यारो
मुस्कुरा के बता दिया मैंने
था उसे इश्क़ मुझसे लेकिन
कब उसे ये पता दिया मैंने
चाँद हासिल नहीं यहाँ सबको
फिर भी सब कुछ जला दिया मैंने
ऐ ‘महावीर’ वो न तेरे थे
इश्क़ क्यों फिर जता दिया मैंने
•••
(15)
माटी में जब-जब बरसात समाई है
मुझको खुशबू तब-तब घर की आई है
गाँव मुझे आवाज़ कहाँ देता है अब
दौलत के पीछे जो नींद गंवाई है
बारिश की कद्र कहाँ की है शहरों ने
गाँवो में काग़ज़ की नाव चलाई है
उर्दू की शान बढ़ाने को देखो फिर
मैंने बज़्म में ग़ालिब की ग़ज़ल गाई है
दुनिया मक़्तल* है, जाना है इक दिन
क़त्ल यहाँ होने को क़िस्मत लाई है
जीते जी हम सब भटक रहे थे यारो
सबने ही तो मरके मंज़िल पाई है
देश की क़ीमत वो ही समझेगा यारो
परदेश में जिसने भी उम्र बिताई है
•••
__________
*मक़्तल — वध-स्थान। वध-भूमि।
(16)
ये शहर मुझको जितना देता है
उससे ज़्यादा निचोड़ लेता है
मार डालेगी हर अदा उसकी
इश्क़ मुझको ये ख़ौफ़ देता है
डूब जाऊँ तो ग़म नहीं मुझको
हर भँवर में तू नाव खेता है
क़त्ल काफ़ी हैं यूँ तो सर उसके
वो बड़े क़द का आज नेता है
बोल्ड नारी समाज की इज़्ज़त
सच बता तूने क्या ये चेता है
•••
(17)
वो दिल तोड़े, मैंने जोड़ दिया
यूँ क़िस्से को नया इक मोड़ दिया
उसने इस्तेमाल किया इश्क़ में
फिर लाचार समझ के छोड़ दिया
फ़िक्र उसे थी कहाँ रुस्वाई की
महफ़िल में ही हाथ मरोड़ दिया
यूँ दिल से ग़रीब रहे हरदम वो
बेशक़ पैसा रब ने करोड़ दिया
पैरों से फूल कुचल कर उसने
अक्सर प्यार भरा दिल तोड़ दिया
दो राहे पे अक्सर दौलत ने
बदक़िस्मत का मुक़द्दर फोड़ दिया
•••
________
*दृष्टिभ्रम—मरीचिका
**गुरूर—घमंड
(18)
लगे रहिये जब तक है ये मुफ़लिसी
बढ़े चलिये जब तक है ये ज़िन्दगी
उजाला भी सोया हुआ है यहाँ
जगा करिये जब तक है ये चाँदनी
कि आदत नहीं है सुधर जाएँ हम
ज़रा जगिये जब तक है ये गन्दगी
जहां में हमेशा रहे अम्न अब
दुआ करिये जब तक है ये आदमी
नहीं मिट सकेगी बुराई कभी
भला करिये जब तक है ये बन्दगी
•••
(19)
कई तीर मारे हैं सरकार आप ने
दिए ज़ख़्म काफ़ी यूँ हर बार आप ने
वफ़ा ख़ुश-दिली से निभाई कहूँ क्या
जिया छू लिया है मिरा यार आप ने
न थी जीत मुमकिन, रही जंग जारी
हमेशा किया यूँ पलटवार आप ने
हसीं थे न ग़मगीन, क़िस्से वफ़ा के
किया खूब यूँ व्यक्त आभार आप ने
यहाँ तिगनी का नाचते, नाच सब ही
लगाया है क्या खूब, दरबार आप ने
•••
(20)
चन्द रोज़ ही धमाल होता है
हर उरूज़ का ज़वाल होता है
ये परिन्दे को क्या ख़बर यारो
हर उड़ान पे सवाल होता है
छीन लो हक़ अगर नहीं देंगे
इंक़लाब पे बवाल होता है
झूठ को सब पिरोये सच कहके
हर जगह यह कमाल होता है
हर सुबह चमकता ये सूरज भी
शाम को क्यों निढाल होता है
•••
__________
उरूज़—बुलंदी, उन्नति, तरक़्क़ी, ऊँचाई, उत्कर्ष, उत्थान, उठान।
ज़वाल—पतन, गिरावट, अवनति, उतार, घटाव, ह्रास।
इंक़लाब—क्रान्ति, बदलाव, परिवर्तन।
बवाल—बोझ, भार, विपत्ति; या भीड़ द्वारा की गई तोड़-फोड़, मार-पीट आदि।
(21)
कहे वो ‘वाह’ जिसको यार प्यारा है
भरे वो ‘आह’ जिसका प्यार खारा है
किसी का आज कोई यार रूठा फिर
दुआ में माँगने दो चाँद न्यारा है
पलक हरगिज नहीं, झपकाइयेगा अब
किसी की आँख का कोई सितारा है
ज़रा आँखों में अपनी, झाँकने दो फिर
नज़र भर देख लूँ, दिलकश नज़ारा है
गिला तुमसे नहीं, शिकवा करूँ रब से
मुझे तक़दीर ने, क्या खूब मारा है
क़सम से जान भी अब मांग लो साहब
मिरा क्या है, यहाँ सब कुछ तुम्हारा है
मिले हो आप जबसे हर ख़ुशी पाई
महब्बत में मुक़ददर फिर सँवारा है
•••
(22)
आप रहे सर्वेसर्वा, सबके सरकार यहाँ
छोड़ चले आख़िर, दुनिया का कारोबार कहाँ
मालूम तुम्हें था जाना है, इक दिन संसार से
फिर क्यों पाप किये, पुण्य कमाते सौ बार जहाँ
लूट लिया करते दानव, यूँ तो पशु जीते हैं
नेकी न किये मानव तो, है तुझे धिक्कार यहाँ
अब पुण्य कमा ले कुछ, छोड़ दे ये गोरखधन्धे
हर शख़्स अकेला है, न किसी का घरबार वहाँ
काल कभी भी आ धमके, क्यों हैराँ हो मित्रो
आगाह करूँ सिर्फ़ यही, कवि का अधिकार यहाँ
•••
(23)
तिरी यादों में तड़पे डूबे हम
वफ़ा की दास्तां से ऊबे हम
न कह पाए कहानी यूँ कभी
बनाते रह गए मंसूबे हम
मिली मंज़िल न तेरी बज़्म ही
सफ़र में थे अजीब अजूबे हम
तमन्नाओं की बस्ती ना बसी
नगर वीरान तन्हा सूबे हम
क़सम ली थी क़दम ना रखने की
उन्हीं गलियों में लौटे डूबे हम
•••
(24)
ख़्याल यारो हुस्न का मैं, इश्क़ का दस्तूर हूँ
ज़िन्दगी है खूबसूरत, इसलिए मगरूर हूँ
लोग झूठे, ख़्वाब टूटे, यार रूठा, प्यार भी
बक रहा हूँ जाने क्या-क्या, दिल से मैं मज़बूर हूँ
दिलफ़रेबी घात तेरी, दर्द में जीता रहा
अश्क़ अब पीने लगा हूँ, मैं नशे में चूर हूँ
हाय क़िस्मत क्या मिली है, तीरगी है चार सू
हर घड़ी डूबी ग़मों में, वो ख़ुशी बेनूर हूँ
कर खुदा से इश्क़ सच्चा, मोह सारे त्याग दे
लौटे मूसा ज्ञान लेके, वो पहाड़ी तूर* हूँ
•••
–––––––––––––––
*तूर— तूर पहाड़ जहाँ हज़रत मूसा दो बार गए थे। पहली बार पवित्र घाटी में आग की तलाश में, जब ईश्वर से उनकी वार्तालाप हुई व ईश्वर ने चमत्कार प्रदान किए थे। वादी-ए-ऐमन, शजरे-ऐमन, आग, वादी-ए-मुक़द्दस, शोला-ए-सीना आदि तलमीह। दूसरी बार तब—जब मूसा अपनी क़ौम को फ़िरऔन के अत्याचार से मुक्ति दिलाकर वादी-ए-सीना में ठहरे। उस वक़्त मूसा को अपने क़ौम की रहनुमाई के लिए शरीअ’त
(वो क़ानून जो भगवान ने अपने बंदों के लिए निर्धारित किया) प्रदान करने को ‘तूर’ बुलाया गया। पहले उन्हें 30 रातों के लिए बुलाया गया था फिर 10 रातों का इज़ाफ़ा कर दिया गया। 40 दिन पूरा होने पर मूसा को शरीअत प्रदान की गई और सीधे ईश्वर से वार्तालाप करने का गौरव प्राप्त हुआ।
(25)
फिर गई है उनकी नज़र
बढ़ गया है दर्दे जिगर
बेवफ़ाई शरमा गई
झुक गई हया से नज़र
साँस कैसे लूँ मैं यहाँ
घुल गया फ़िज़ाँ में ज़हर
वो बढ़ा रहे सिलसिले
कर रही दुआएँ असर
हमसफ़र न अब रूठिये
ख़त्म होने को है सफ़र
मौत का ही खटका रहा
ज़िन्दगी में आठों पहर
•••
(26)
रह गई क्या कमी ज़िन्दगी
क्यों हुई अजनबी ज़िन्दगी
खो गई है जमा-भाग में
रात दिन दौड़ती ज़िन्दगी
दूर से ही लिपट जाती थी
आशना थी कभी ज़िन्दगी
दो घड़ी चैन भी था कहाँ
हाय! ये बेबसी ज़िन्दगी
मौत का ख़्याल छोड़े मुझे
अरसे से ढो रही ज़िन्दगी
अर्थ की कामना शेष है
व्यर्थ ही काट दी ज़िन्दगी
•••
(27)
शब्द घातक वार सा है
तेज़ ये हथियार सा है
इश्क़ का दस्तूर यारो
वक़्त की ये मार सा है
चेहरा ये झूठ सच का
बेवफ़ा के प्यार सा है
खूबसूरत क़ातिलाना
हुस्न ये तलवार सा है
इन दिनों तो हाल अपना
इश्क़ के बीमार सा है
छप गईं ख़ामोशियाँ भी
सिलसिला अख़बार सा है
•••
(28)
ज़ख़्म देने वाले को हमदर्द ही कहते रहे
ओढ़ लीं ख़ामोशियाँ हर दर्द यूँ सहते रहे
जो मुझे हासिल नहीं, क्या वो तुम्हारा इश्क़ था
आँसुओं के समन्दर उम्रभर बहते रहे
प्यार कहते हो इसे तुम, दर्द का अहसास है
एक क़ैदी की तरह हम क़ैद में रहते रहे
मक़बरा हूँ इश्क़ का, जज़्बात जिसमें दफ़्न हैं
इक इमारत की तरह ही बारहा ढहते रहे
यार अपने दिल की सुनना कुछ सही था कुछ ग़लत
ज़िन्दगी भर भावनाओं में हमी बहते रहे
•••
(29)
इश्क़ समन्दर समझ न आया
जितना डूबा उतना पाया
दरपन देखूँ दीखे तू ही
मुझमें तेरा इश्क़ समाया
तुझको सोचूँ तो धड़के दिल
रब ही जाने, ये सब माया
सच कहते हैं लोग सयाने
जिसने खोया उसने पाया
इश्क़ में किसने मंज़िल पाई
उल्फ़त ने सबको ही खाया
•••
(30)
ज़िन्दगी में संभावना ढूँढ़ो
यूँ मधुर कोई कल्पना ढूँढ़ो
ये महायुद्ध ज़िन्दगी का है
तीर ज़ख़्मों से मत सना ढूँढ़ो
वक़्त फिर लौट के न आएगा
अहदे-उल्फ़त में दिल फ़ना ढूँढ़ो
व्यस्त जीवन में दो घड़ी रुककर
खो गई जो यहाँ अना ढूँढ़ो
दिल जिगर शीशे टूट जायेंगे
यार पत्थर का मत बना ढूँढ़ो
•••
(31)
खुदा हैं हुस्न वाले ये, इन्हें सब याद करते हैं
हमारे दिल की बस्ती को, यही आबाद करते हैं
अजब तूने ग़ज़ब ढाया, बनाके हुस्न वालों को
डुबोते हैं ग़मों में ये, यही दिल शाद करते हैं
बड़े मासूम क़ातिल हैं, ये माहिर हैं अदाओं के
हुनर सब जानते हैं ये, यही बरबाद करते हैं
नज़र जिसपे ये डालेंगे, यक़ीनन मार डालेंगे
जकड़ लेते हैं ज़ुल्फों में, न फिर आज़ाद करते हैं
सुनाते भी ये अच्छा हैं, इन्हें आता है कहना भी
ग़ज़ब के शे’र हैं इनके, यही इरशाद करते हैं
•••
(32)
प्रीत गहरी फ़क़ीर समझेगा
बहते अश्क़ों की पीर समझेगा
चदरिया झीनी-झीनी रे जिसकी
रंग पक्का कबीर समझेगा
जाने घायल की गति को ही प्रेमी
कृष्ण मीरा की पीर समझेगा
इश्क़ ताउम्र जिसको तड़पाये
इक पहेली थी, हीर समझेगा
जो न जाना है इश्क़ की बातें
वो ही अश्क़ों को नीर समझेगा
•••
(33)
बेक़रारी ही मिली है इश्क़ करते
बेहतर था हम अकेले मस्त रहते
क्या कहें अब ग़म के मारे यार तुमसे
लाख अच्छा तो ये होता रब से लड़ते
इश्क़ की दुनिया में दाख़िल, क्यों हुए हम
दिन गुज़रते अच्छे, ना यूँ आह भरते
जान जाते जो ये दिल का हाल होगा
वो भी खुश रहते हमेशा, हम न कुढ़ते
काश! मैं धनवान होता आप जैसा
आज मेरा हाथ थामे तुम भी चलते
तुम चले आओ मिरी अब साँस टूटे
थक गया है देख सूरज रोज़ ढ़लते
•••
(34)
आपको ये खुश-बयानी हो गई है
इश्क़ में दुनिया दिवानी हो गई है
दास्ताने-इश्क़ में जो आप आये
खूबसूरत ये कहानी हो गई है
खिलखिलाएँ चोट में भी दर्द पाके
ज़ख़्म की ये तर्ज़ुमानी हो गई है
चार सू महके है खुशबू यूँ वफ़ा की
अहदे-उल्फ़त ज़ाफ़रानी हो गई है
दुश्मनी अब बीच कोई ना हमारे
दोस्ती इतनी पुरानी हो गई है
•••
_________
खुश-बयानी—बातचीत का माधुर्य
तर्जुमानी—एक का मतलब दूसरे में बयान करना
ज़ाफ़रानी—केसरयुक्त
(35)
दुखों की कहूँ, दास्ताँ कैसे कैसे
वबा खा गई, नौजवाँ कैसे कैसे
कहाँ खो गए, भीड़ में छोड़ तन्हा
क़ज़ा ले चली, आसमाँ कैसे कैसे
तसव्वुर से बाहिर, न निकले कभी हम
थे शामिल यहाँ, दो जहाँ कैसे कैसे
सितमगर ने ढाए हैं, मुझपे सितम यूँ
बताएँ तुम्हें क्या, कहाँ कैसे कैसे
न पूछो ग़मों की, कहानी है लम्बी
हसीं हादसे थे, यहाँ कैसे कैसे
•••
(36)
मोहमाया, सब भुलाओ
यार अब तो, जाग जाओ
प्यार धोका है, भरम भी
बात मेरी, मान जाओ
हुस्नवालों का करम ये
इश्क़ वालों को मिटाओ
क्या धरम था, बेवफ़ाई
बेवफ़ा को. ये बताओ
हर कोई ये जानता है
झूठ-सच ये मत सुनाओ
हिज़्र में अब डूबना क्या
तुम ख़ुशी के गीत गाओ
देखना है, देखिये दिल
दिल किसी से, तब लगाओ
झूठ बोलो, झूठ को तुम
सच को उसमें, मत दबाओ
रात क़ातिल, बढ़ रही है
दूरियाँ, कुछ तो घटाओ
कैसे-कैसे, दिल ये बहला
दास्ताँ ये, सुनते जाओ
टूटकर, बहला है दिल ये
इश्क़ मुझसे, मत लड़ाओ
चैन से रहने दो कुछ दिन
मुश्किलें फिर, मत बढ़ाओ
हाय! मुश्किल बेक़रारी
मर न जाएँ, लौट आओ
•••
(37)
गहरा इश्क़ था, क्यों घात हुई
दिल टूटा तो, बरसात हुई
ताउम्र रहे सावन-भादो
जो अश्कों की बरसात हुई
दुःख ही शामिल थे क़िस्मत में
रहमत मुझपे, दिन-रात हुई
फूलों ने सबको ज़ख़्म दिए
ख़ारों से अक्सर बात हुई
अक्सर आँखों ही आँखों में
गहरी बातें, बिन बात हुई
जी की बात रही जी में ही
कैसी हाय! मुलाक़ात हुई
उल्फ़त की शतरंज बिछी थी
यूँ अक्सर शह-ओ-मात हुई
थे हिन्दू-मुस्लिम, मिल न सके
दुश्मन इन्सानी ज़ात हुई
फिर ठहरा वक़्त कहाँ ग़ुज़रा
फिर दिन निकला ना रात हुई
फिर दोष किसीको क्यों दे हम
जब पग-पग पर ही घात हुई
हरदम टूटे दुःख विरहा के
यूँ रोज़ यहाँ बरसात हुई
ये तो दस्तूरे-उल्फ़त था
क्यों सब कहते हैं घात हुई
•••
(38)
हर घर आँगन मौत बसेरा
हाय! महा विपदा ने घेरा
हाहाकार मची है भारी
कोरोना ने डाला डेरा
बस्ती-बस्ती वीरान हुई
निशदिन यम का लगता फेरा
कोई न मिटा पाए तुझको
ज़िन्दा है गर जज़्बा तेरा
निश्चय कोरोना हारेगा
टीका हथियार बना मेरा
•••
(39)
आदमी क्यों फ़क़ीर है दिल से
हर बशर जब अमीर है दिल से
वो फ़रिश्ता है यार दुनिया में
साफ़ जिसका जमीर है दिल से
शख़्स जो भी है खुद से शर्मिन्दा
वो ही सच्चा अमीर है दिल से
बख़्श दे क़ातिलों को, जीने दे
ये सज़ा ही नज़ीर है दिल से
हो के भी जो नहीं है दुनिया में
सिर्फ़ वो ही फ़क़ीर है दिल से
•••
(40)
भीग रहा मन हो दीवाना
आया होली पर्व सुहाना
झाँझ बजे है और मंजीरा
थोड़ा तुम भी ढोल बजाना
मन झूमे है तन भी मेरा
ऐसे ही तुम फाग सुनाना
मनभावन ओ कृष्णा मेरे
सपनोँ में तुम रास रचाना
राधे कहे सुन हे कन्हाई
धीरे-धीरे रंग लगाना
•••
(41)
खो गए बेकार हम, दुनिया के कारोबार में
भूल बैठे मेहमाँ हैं, हम सभी संसार में
कौन जाने, पार जाना है हमें कब, किस घड़ी
डोलती हैं ज़िन्दगी की, नाव ये मझधार में
ओढ़ ली चादर भरम की, हमने अपने चार सू
जी रहे थे चैन से हम, नाज़नीं के प्यार में
मौत आई ले चली, टूटा भरम घर-द्वार का
मान बैठे थे हक़ीक़त, झूठ को संसार में
•••
(42)
मैं रहूँ ना रहूँ शा’इरी रहे
मौत के बाद यूँ ज़िन्दगी रहे
नेकियाँ ओ वफ़ाएँ रहें सदा
यूँ जहाँ में मेरी बन्दगी रहे
शाम हो हुस्न की वादियों में ज्यों
तेरी आँखों में यों, आशिक़ी रहे
साक़िया मैं कहूँ क्या, नशे में हूँ
ज़िक्र तेरा रहे, मयकशी रहे
•••
(43)
दूर जो जाएँ’गे आप
भूल क्या पाएँ’गे आप
एक दिन पछता के खुद
लौट फिर आएँ’गे आप
सहमे सिमटे बाँह में
खुद ही शरमाएँ’गे आप
क्या इशारे से मुझे
फिर नचा पाएँ’गे आप
है यक़ीं, खोया जो मैं
ढूँढ के लाएँ’गे आप
देखना उल्फ़त के खुद
गीत फिर गाएँ’गे आप
•••
(44)
भीड़ अजब रेला है भाई
दुनिया का मेला है भाई
उसको सबक मिला है अच्छा
जिसने दुःख झेला है भाई
गाँव में तो राजा थे हम भी
शहरों में ठेला है भाई
रास न आये यार सभी को
ये इश्क़ झमेला है भाई
नक़्श* बिगाड़ दिया कष्टों ने
दुःख ही दुःख झेला है भाई
मरकर भी शा’इर है ज़िन्दा
शब्दों का खेला है भाई
•••
_________
*नक़्श — चेहरा-मोहरा; मुखाकृति
(45)
सब पे ही क़यामत तोड़ी है
क्या खूब ग़ज़ब ये जोड़ी है
तुम भी उससे बच के रहना
जिसने भी शराफ़त छोड़ी है
कुछ तो अच्छा है इसमें भी
ये दुनिया लाख निगोड़ी है
हाथ न आये उम्र किसी के
सरपट भागे ये घोड़ी है
दुनिया ने उसे सम्मान दिया
जिसने राह कठिन मोड़ी है
शा’इर तो ज़िन्दा है हरदम
शब्दों को मरना थोड़ी है
•••
(46)
फ़क़त धन कमाता, तो ग़ज़लें न कहता
ये क़िस्से न होते, मैं ख़ामोश रहता
मिरा ये हुनर है, मिरी कामयाबी
अगर बन्ध जाते, न दरिया सा बहता
बना इश्क़ क़ातिल, हुआ आशिक़ाना
न चुपचाप मैं तीर, नज़रों के सहता
अगर जानता मैं भी, जो बेवफ़ाई
महल ना वफ़ाओं का खंडर सा ढहता
हुनर ये अदब ये, करम है उन्हीं का
न सुनता जो दिल की, तो क्या फिर मैं कहता
•••
(47)
गहरा इश्क़ था, क्यों घात हुई
दिल टूटा तो, बरसात हुई
ताउम्र रहे सावन-भादो
जो अश्कों की बरसात हुई
दुःख ही शामिल थे क़िस्मत में
रहमत मुझपे, दिन-रात हुई
फूलों ने सबको ज़ख़्म दिए
ख़ारों से अक्सर बात हुई
अक्सर आँखों ही आँखों में
गहरी बातें, बिन बात हुई
जी की बात रही जी में ही
कैसी हाय! मुलाक़ात हुई
उल्फ़त की शतरंज बिछी थी
यूँ अक्सर शह-ओ-मात हुई
थे हिन्दू-मुस्लिम, मिल न सके
दुश्मन इन्सानी ज़ात हुई
फिर ठहरा वक़्त कहाँ ग़ुज़रा
फिर दिन निकला ना रात हुई
फिर दोष किसीको क्यों दे हम
जब पग-पग पर ही घात हुई
हरदम टूटे दुःख विरहा के
यूँ रोज़ यहाँ बरसात हुई
ये तो दस्तूरे-उल्फ़त था
क्यों सब कहते हैं घात हुई
•••
(48)
आप ने तोड़ा है
हमने फिर जोड़ा है
काम मुश्किल था ये
हमने कर छोड़ा है
ज़ुल्म के आगे तो
न्याय ये थोड़ा है
युद्ध के माहौल में
भागता घोड़ा है
पड़ रहा जो तुम पर
वक़्त का कोड़ा है
फूटना था आख़िर
मजहबी फोड़ा है
•••
(49)
सबके नसीब में बहार नहीं
सबकी रुहों को है क़रार नहीं
दर्द उठे मिले न ज़ख़्म कोई
कौन है वो जो बेक़रार नहीं
मुझको नहीं पता है हश्र मिरा
नाव मिरी लगी है पार नहीं
कोई क़रार पाये तड़पे कोई
कह दे मुझे तुझे है प्यार नहीं
यूँ तो क़दम-क़दम पे पाँव छिले
खार मिले, गुलों के हार नहीं
•••
(50)
होंगे आबाद कहाँ
हम हैं बरबादे-जहाँ
कुछ भी तो नहीं बदला
हम थे जहाँ, हम हैं वहाँ
धोका है प्रेम कथा
तुम हो कहाँ, हम हैं यहाँ
थी लबों पे न हमेशा
‘हाँ’ तूने कहा था कहाँ
इश्क़ में गुम तन्हा हम
बरसों से जहाँ के तहाँ
•••
(51)
क्योंकर जलाये वो, कुछ ख़त महब्बत के
लिखवाये हसरत ने, जो तेरी चाहत के
अब भी ज़हन में हैं, बेशक जले वो ख़त
वो शब्द उल्फ़त के, मजरूह निस्बत के
अफ़साने क़ातिल के, क्या खूब उभरे हैं
मुझको सुनाने हैं, क़िस्से अदावत के
बीमार को जानाँ, क्योंकर सताते हो
मशहूर हैं क़िस्से, तेरी नज़ाकत के
था तेरी नफ़रत में, जज़्बात का जादू
जी भर के देखूँ मैं, ये सुर बग़ावत के
है पाक उल्फ़त तो, डर इश्क़ से कैसा
कल लोग ढूंढेंगे, क़िस्से सदाक़त के
नाहक जिया डरकर, मैं तेरी चाहत में
घुटते रहे अरमाँ, यूँ दर्दे-उल्फ़त के
क्यों धुँद-सी छाई है, क्यों अजनबी हैं हम
क्या आप थे पंछी, इस प्रेम परवत के
क्यों देखकर उनको, होती नहीं राहत
क्या आ गया कोई, फिर बीच ग़फ़लत के
क्यों छीन ली मुझसे, सारी ख़ुशी तुमने
मुझको दिए हैं ग़म, क्यों तूने फ़ितरत के
क्यों पी न पाया मैं, बहते हुए आँसू
क़ाबिल नहीं था क्या, मैं तेरी फुरक़त के
तुमको नहीं उल्फ़त, तो छोड़िये साहब
पर सुर नहीं अच्छे, ऐ यार नफ़रत के
मंज़िल नहीं कोई, हैं मोड़ ही आगे
जाएँ कहाँ दिलबर, अब मारे क़िस्मत के
जब नाखुदा किश्ती, तूफ़ान में डूबे,
कैसे बढ़ें आगे, हम टूटी हिम्मत के
था इश्क़ में मेरा, ऊँचा कभी रुतबा
माना नहीं क़ाबिल, मैं आज अज़मत के
जी भर के रोये थे, बरसात हो जैसे
भूले नहीं भूले, पल हाय! रुख़्सत के
नीलाम था शा’इर, वो प्यार मुफ़लिस का
जज़्बात बे’मानी, दिन हाय! ग़ुर्बत के
थी ज़िन्दगी रोशन, तुम साथ थे मेरे
वो रौशनी खोई, अब बीच ज़ुल्मत के
•••
––––––––––––
(1.) मजरूह — घायल, आहत, ज़ख्मी।
(2.) निस्बत — लगाव; संबंध; ताल्लुक।
(3.) अदावत — शत्रुता, बैर, दुश्मनी।
(4.) जानाँ — प्रेमपात्र, महबूब, प्रेमिका, प्रेयसी।
(5.) सदाक़त — सत्यता, सच्चाई।
(6.) ग़फ़लत — असावधानी, बेपरवाही, अचेतनता, बेसुधी।
(7.) फ़ितरत — स्वभाव, प्रकृति, चालाकी, चालबाज़ी।
(8.) फुरक़त — वियोग, जुदाई।
(9.) नाखुदा — मल्लाह, नाविक।
(10.) अज़मत — बड़ाई, महिमा, गौरव।
(11.) रुख़्सत — बिछड़ना, विदा होना।
(12.) मुफ़लिस — ग़रीब, निर्धन।
(13.) ग़ुर्बत — परेशानी होना, दरिद्रता।
(14.) ज़ुल्मत — अंधकार, तम, तिमिर, अँधेरा, तारीकी।