इंसान कहीं का भी नहीं रहता, गर दिल बंजर हो जाए।
रोशनी आबाद रहने दो, ये घरों की देहलीज पर तुम,
ना जाने, कौन भटकता मुसाफ़िर, कब गुजर जाए।
दिया बन कर मिलो, गर दिखे अंधेरा, किसी मकां में,
क्या ख़बर, तेरे आंगन कभी, सियह-बख़्ती उतर आए।
कुछ अज़्मत-ए-इंसानियत भी रख, अना के पहलू में,
तजुरबा कहता है, कहीं तुझे मुहब्बत ही ना हो जाए।
इन्तहा पसन्द होना, इक काफ़िर का, दहशत गर्द है,
तमाम उम्र, मजार पे गुज़ार दे, गर उसे इश्क़ छू जाए।
ख़ुद-आगही है ही कितनी, कितने बरस गुजरे तुम पर,
तमाम अना से अकड़े सर, पहरो सजदो में गिरते पाए।
अख़लाक पैदा कर, खुलूस की बुआई कर, सींच इसे,
इंसान कहीं का भी नहीं रहता, गर दिल बंजर हो जाए।