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25 Aug 2024 · 1 min read

इंसानियत

झुक जाता हूँ मैं,
मगर टूटा हुआ नहीं हूँ मैं ।
पंख विहीन होते हुए भी,
भरना चाहता हूँ ऊँची उड़ान,
अनन्त आसमान में।
मगर इंसानियत के नाते,
जमीन पर ही बैठकर,
सुकून पा रहा हूँ
क्योंकि
मेरा अपना ज़मीर
अभी जिंदा है।
तराश कर देखा मैंने,
अपने आपको,
मैं भी ,
एक खोटा सिक्का ही निकला।
मगर मुझे फक्र है अपने खोटेपन पर,
क्योंकि तहख़ानों में धूल फांक रही है अनन्त धन-सम्पत्ति,
इंसानियत कराह रही है दर्द से,
और ये अकेला खोटा सिक्का,
हैवानियत में भी,
इंसानियत ढूँढने के लिए प्रयासरत है।
**********
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा

Language: Hindi
57 Views

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