इंसानियत
आज हमें अपने अंदर की इंसानियत पर गौर करने की ज़रूरत है आत्म समीक्षा करने की ज़रूरत है। क्या हम वाक़ई वैसे हैं जैसे एक इंसान को होना चाहिए क्या हम वैसे हैं जैसी इंसानियत की परिभाषा है और क्या आज का हर इंसान इंसानियत की परिभाषा जानता है तो शायद जवाब होगा नहीं। हम या तो पथभ्रमित हो गए हैं या पथभ्रष्ट हो गए है। हम सिर्फ़ आदमी बनकर रह गए हैं इंसानियत हम में कम होती जा रही है। हम वापिस पाषाण काल की तरफ जा रहे हैं जब हम सिर्फ़ आदमी थे। हम जंगल के अन्य जानवरों की तरह ही थे न खाने पीने की तमीज़ थी न उठने बैठने की न बोलने चालने की और न ही चलने फिरने की। हम वाक़ई पशु समान थे। धीरे धीरे हमने इंसानियत सीखी और पशुओं से अलग नज़र आने लगे। प्रसिद्ध लेखक रामधारी सिंह दिनकर ने अपने एक लेख ‘नाखून क्यूँ बढ़ते हैं’ में लिखा था की नाखून मनुष्य की पशुता का प्रतीक हैं। इन्हें देखकर हमें ये एहसास होना चाहिए कि हम भी कभी पशु थे। आज के दौर में भी हम जानवरों की तरह होते जा रहे हैं या कहें कि उससे भी बदतर होते जा रहे हैं ।शायद जानवरों में आज के मनुष्यों से ज़्यादा सामवेदनाएँ होती होंगी। इस मशीनी युग में हम भी एक मशीन बनते जा रहे हैं। एक दूसरे के प्रति जो लगाव संवेदना जो सहानुभूति पहले होती थी वो अब निरंतर ख़त्म होती जा रही है। क्या सच में हमें आत्म समीक्षा करने की ज़रूरत नहीं है?