इंसानियत का कर्ज
महफूज़ हम हो सके इसलिए खुद दर्द सहते हैं,
हम अपनो के साथ रहे इसलिए वो खुद घर से दूर
रहते हैं,
महामारी की इस जंग में वो किरदार गजब निभाते हैं,
हमारे और उसके बीच वो बड़ी मजबूत दीवार बन
जाते हैं,
राहों पर वो खड़े रहते इसलिए हम चैन से सोते हैं,
हमको बचाने के लिए घर से दूर वो लैब में भी रहते
खाना पसंद न आने पर थाली को हम सरकाते है,
और ड्यूटी में इतने मशगूल वो एक वक़्त खाने को
भी तरसते हैं,
घर में महफूज़ होकर भी हम बोरियत का तमाशा
करते हैं,
खुद को भूल दूसरों की परवाह कर वो अपना
राजधर्म निभाते हैं,
कोई आंच आए ना हम पर इसलिए अपनों के लिए
भी अनजान बन जाते हैं,
और हम इंट पत्थर से उनका स्वागत कर उनकी
गलती का एहसास दिलाते हैं,
सुरक्षित है आज हम तो यह उनकी ही मेहरबानी है,
गर ना होते सख्त वो तो आज ही ख़त्म होती अपनी
कहानी है,
किस बात का गुरूर हममें अब तक इस बात से
अनजान है,
क्या बिगाड़ा उन्होंने हमारा जो खुद हमारे लिए
अपनों से अनजान है,
ना किया ढंग से बर्ताव इनसे फिर भी कर्म अपना यह
करते हैं,
हमको बचाने के लिए सिर्फ दुश्मनों से ही नहीं गद्दारों
से भी लड़ते हैं,
एहसान है सफेद और खाकी रंग का हम पर भूले न
भूल पाएंगे,
इंसानियत- ए- खुदा के रूप में यही सदियों तक
पहचाने जाएंगे।