*इंद्रधनुष के समय *
मन प्रफुल्लित हो छोटी बूंदें,
बैठीं -आकर -इंद्रधनुष -पर ।
तन बेध रहीं रवि की किरणें
बन प्रत्यंचा के प्रखर शर ।।
कुछ लटकी भटकी बूंदें भी
लसे -सतरंगी -श्रंगार- लिए ।
नाच रहीं नृत्यआंगना ज्यों ।
उर अंक भरी रतिधार लिए ।।
भर श्याम घटा ये वरस पडें
नील- गगन के -सघन- मेघ।
ज़ल ने हिंसक रूप लिया ,
मौन– पड़ी –ये -धरा देख ।।
मिल कर के मृषा के संग ,
प्लवित हुई कीचड़ काई ।
जो जग को जीवन सत देते
कैसी ये निर्ममता है छाई ।।
धरा गगन का मूक मिलन,
दूभर हुआ क्षितिज संगम ।
तन राहों ने निज त्याग दिया
पथ हुआ हाय !तमसा दुर्गम।।
रवि की सुनहरी किरणों में
दिख रही उषा की दीप्त कहाँ।
बिछुड़ गया यह दीन शलभ
अकाल गर्त में फंसा यहां ।।
नींड त्यागा क्षुदा अग्नि वस
रत्नावनि से अनकण पाने ।
जो बीत रही उसके तन पर
ज़्ल भरे मेघ ये क्या जाने ।।