इंतजार
सबके पास नहीं होता है
विश्वास, क्रांति लाने का
स्वीकार करो
नहीं होता है लाभ
बंजर जमीन में बिज डालने से
हमेशा यह संभव नहीं है कि
दोनों का मत एक हो
पर्वत के आगे खड़े हो जाने से
क्या वो सचमुच छोटा
हो जाता है ?
किसको पता , कहाँ रहता है
न दिखने वाला समय
बिन जाने शब्दों को
इधर उधर रख
बित जाता है वो भी
रात भर पश्चाताप के बाद
मुँह धोकर सबेरा
ऐसे आता है
जैसे एक पत्ते पर गिरा हुआ
निश्पाप ओस…..
मगर कितनी देर?
हम तो जी लेते हैं
न पढ़ने वाले वाक्य के जैसे
याद न जाने वाली एक
जरुरी खबर जैसे
और उखड़ी हुई हस्तरेखा जैसे
कैसे पोछुं समय के उपर
ज़मीं इस धुल को
चारों ओर फैला हुआ
एक बेमतलब संदेश को
ऐसे वक्त में कुछ शब्दों
मिल कर बन जाती है कविता
फिर इंतजार करती है
अल्पविराम को
मगर अल्पविराम के साथ
आ जातें हैं कुछ प्रश्न वाचक
और वे इंतजार करते हैं
आ जाएगा कुछ उत्तर
आपने आप
मेरी डायरी की पृष्ठा में
शायद मेरे उठ जाने के बाद।
***
पारमिता षड़ंगी