आ रही हो न!(बारहमासा)
देखो. . . . .
सुनो न
अब और न रुलाना मुझे
आँखों के तलाव
अब सूख चुके हैं
इनकी बहने की क्षमता
निम्न हो गई है
पर तुम्हारा ये
मुँह मोड़ना
मेरी जान पर
बन आया है
आखिर कब आओगी तुम
वादों के तुम्हारे
ढेर लग चुके हैं
पर कोई भी
अभी तक तुमने
निभाया नहीं है
देखो. . . .
चैत की धूप
अब तन को
जलाने लगी है
मानो विरह की अगन
रवि को भी
तपाने लगी है
लो निर्मोही
सूरज अब
विशाखा के निकट आ गया है
बैसाख के ढोलों की थाप
मुझे चुभ रही हैं
ये जेठ की तपती दुपहरिया
और ऊपर से
तुम्हारा साथ न होना
ओह! इस अभागे को
कितना तड़पाओगी?
लो सखी!
चौमासा शुरू हो गया
व्यथा विरह की
अब पानी भरने लगेगी
षाढ़ की दो बूँदें
सावन की फुहारों में
बदल गई हैं
पर तेरे न आने की कसमें
शायद पूरी न हुई हैं
ये भादो के बदराते दूत भी
मानो तेरे द्वारे से
कतराकर निकल आए हैं
जो ये तेरा कुछ संदेशा
न लाए हैं
कुआर की मदमाती हवाएँ
जीर्ण होती यादों को
उघाड़ने लगी हैं
नर्म होती धूप
कातक में सोते देव
हा! अब किससे गुहार लगाऊँ
सर्द होती रातें
गहराने लगी हैं
मार्गशीर्ष की ठंडी
गोधूलि-वेला में
मैं मार्ग के शीर्ष तक
तुम्हे देखने
पगडंडियों पर
पसर जाता हूँ
पर एक आहट भी
उन पायल की
खनकियों की
मधुर सरसराहट
मुझे सन्नाटे में
खोई सी लगती हैं
पोष की ठिठुरती
स्याह रातों में
मैं क्षितिज के धुंधलकों में
पलकों को राहों पे
पथराए रखता हूँ
माघ की शबनमी सुबहों में
अलसती विटप के किसलयों पर
तेरे विस्मृत अक्श को
दोहराता रहता हूँ
देखो. . . .
भामिनी मधुमास न सही
पर मधुमाते से इस
फागुन में तुम
मधुर मिलन को
साकार कर देना
पलाश के रेशमी फूलों से
संग तुम्हारे
होरी खेलना
साकार कर देना
यूँ बरस पे बरस
गुजरते चाहे भले जाएँ
पर इन साँसो के पखेरुओं को
तुमसे मिले बिना मैं
उड़ने न दूँगा
तो कहो. . .
इस बरस तुम
आ रही हो न. . .
सोनू हंस