काल का नव रूप
काल के नव रूप में आ गया फिर से कोरोना।
देखिए कि दृश्य कृंदित दिख रहा जन जन का रोना।
देखिए ये जाल कैसा बिछ रहा संसार में।
छेद होता दिख रहा है सृष्टि के आधार में।
थी धरा कितनी मनोरम किंतु कैसा रोग है?
ये कोरोना तो लगाती मौत को जन भोग है!!
काल के नव रूप में आ गया फिर से कोरोना।
देखिए कि दृश्य कृंदित दिख रहा जन जन का रोना।
आज धरती के पटल पर देखिए आकुल हृदय
कर्ण में भी सोर है कि लग रहा निश्चित प्रलय।
आज अग्नि के पथिक चलने लगे मृत्यु के पथ।
कब लगाएंगे किसन दैहिक सुरक्षा हित में रथ।
काल के नव रूप में आ गया फिर से कोरोना।
देखिए कि दृश्य कृंदित दिख रहा जन जन का रोना।
आज जो बेवक्त ही हां आ चुका नव काल है
आज भोजन छोड़िए कि श्वांस भी मुहाल है।
क्या कहूं ये मार है या की कहर विध्वंश है?
या कि मृत्यु देव का ये ही प्रलयंकर अंश है?
काल के नव रूप में आ गया फिर से कोरोना।
देखिए कि दृश्य कृंदित दिख रहा जन जन का रोना।
©®दीपक झा “रुद्रा”