आज़ाद गज़ल
लिखता वही हूँ जो मैनें झेला है
लफ्जों में लाचारी को उकेरा है ।
किसी और को नहीं यारों वल्कि
रोज़ खुद को ही गौर से पढ़ा है ।
हो गया हूँ मैं सादगी का शिकार
वक्त भी हाथ धोके पीछे पड़ा है।
शायद मिलती है खुशी खुदा को
उम्मीदों पर उसने पानी फेरा है ।
दिन से दो-दो हाथ करके अजय
रात औंधे मुँह बिस्तर पर गिरा है ।
–अजय प्रसाद