आज़ाद गज़ल
अपने ही घर में हूँ मैं बेघर सा
हो गया है दिल भी पत्थर सा।
देखता हूँ,सुनता हूँ खामोशी से
पड़ा रहता हूँ कोने में जर्जर सा।
था कभी गुलज़ार यारों मैं भी
आज़ दिखता हूँ मैं खंडहर सा।
गुजर रही ज़िंदगी जुगाड़ से अब
भटक रही भावनाएं दरबदर सा।
जाने क्यों ये सांसे हैं बेताब सी
औ आँखें रहतीं हैं क्यों मुन्त्ज़र सा
-अजय प्रसाद