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11 Oct 2020 · 46 min read

आज़ाद गज़लें

(1)

जी लेंगे झोंपड़ी में हुजूर चिंता न करें

यही है गरीबी का दस्तूर चिंता न करें ।

आप तो फ़िक्र करें अमीरों के लिए

हम लोग तो हैं मज़दूर चिंता न करें ।

मतदान से पहले आप ये दान दे रहे हैं

आप भी हैं खुद मज़बूर चिंता न करें ।

शिकवा क्या करना जब फ़ायदा नहीं

हम तो हैं ही एक फ़ितूर चिंता न करें ।

तुम भी न अजय उटपटांग बकते हो

जाने कब आएगा शऊर चिंता न करें ।

-अजय प्रसाद

(2)

देखता हूँ भूखा हैऔर नंगा है

मगर हाथों में लिये तिरंगा है ।

हक़ उसे है जश्ने-आज़ादी का

क्या हुआ अगर भिखमंगा है ।

देशभक्ति उसकी रग रग में है

जैसे वो जल पवित्र गंगा है ।

फ़िक्र वो भी करता है देश की

लेता रोज़ वो गरीबी से पंगा है ।

मैला है तन से मन में मैल नहीं

यारों जैसे कठौती में गंगा है ।

-अजय प्रसाद

(3)

ढाक के तीन पात मैं नहीं लिखता

दिल के खयालात मैं नहीं लिखता ।

आँखो से उतर आती है कागज़ पे

सपनों की सौगात मैं नहीं लिखता ।

न आंखे झील सी हैं न चेहरा कंवल

हुस्न के हालात मैं नहीं लिखता ।

बेवफाई,जुदाई हरज़ाइ या गमेइश्क़

घिसे-पिटे ज़ज्बात मैं नहीं लिखता ।

सुन ले अजय कुछ ज्यादा हो गया

मत कहना दिन रात नहीं लिखता ।

-अजय प्रसाद

(4)

करता हूँ मैं कमेंट्स तो आपको भी करना होगा

चाहे घटिया ही पोस्ट करूँ लाइक्स भरना होगा ।

देखिए यहाँ सोशल मीडिया का है यही दस्तूर

इस परम्परा का निर्वाह आपको भी करना होगा ।

स्थापित साहित्यकारों की बात मैं नहीं कर रहा

मगर आप हो टुच्चे तो ज़रा मुझसे डरना होगा ।

जब भी लाइव आऊँ, तो तारीफ़ और बड़ाई करें

मेरे आलोचकों को आपको ब्लॉक करना होगा ।

अजय तुम तो खुद ही बहुत हो समझदार शायर

सब पता है कि आपको क्या क्या करना होगा

-अजय प्रसाद

(5)

तसव्वुर में भी तेरी मुझे मत बुलाना

भूलकर भी कभी खवाबों मत आना ।

ठेका लिया नहीं मैनें नखरे उठाने का

ये नज़ाकत किसी और को दिखाना ।

भूत जो सर पे सबार था तेरे इश्क़ का

अब तो उतरे भी हो गया है जमाना ।

बेवफ़ा कहना भी तौहीन है मेरे लिए

काफ़ी है तुझे मेरी नजरों से गिराना ।

चल किसी और को अब बना उल्लु

तजुर्बों ने अजय को कर दिया सयाना

-अजय प्रसाद
(6)

अजीबोगरीब खौफ़नाक मंज़र देख रहा हूँ

चलते फिरते खुबसूरत खंडहर देख रहा हूँ ।

मिलतें हैं मुस्कुराकर हाथों में हाथ डाले ये

मगर ज़मीं दिल की बेहद बंज़र देख रहा हूँ ।

किश्तियाँ डूबती कहाँ अब किनारों पे आके

साहिलों से सूखता हुआ समंदर देख रहा हूँ ।

आइने यारों चिढाने लगते हैं देखकर मुझे

रोज़ खुद का ही अस्थि पंजर देख रहा हूँ ।

क़त्ल कर देता है जो कैफ़ियत बचपन से

हर बच्चे के हाथ में वो खंजर देख रहा हूँ ।

मेरी हस्ती भी अजीब दो राहे पर खड़ी है

हुई है अपनी गती साँप छ्छुंदर देख रहा हूँ

-अजय प्रसाद
(7)

खेद है आपकी रचना पत्रिका के लायक नहीं है

और साहित्यिक दृष्टिकोण से फलदायक नहीं है ।

आपकी लेखनी है मौलिकता में बेहद कमजोर

क्योंकि हुकूमत के लिए ये आरामदायक नहीं है ।

न छंदोबद्ध है,न बहर में ,न अंतर्गत कोई विधा

हाँ अवाम के जद्दोजहद की सच्ची परिचयाक है

आपकी रचनाओं में शालीनता की बहुत कमी है

और रचनाओं में भी कोई कृत्रिम नायक नहीं है ।

श्री मान अजय जी वापस की गई रचना आपकी

अनयत्र न भेजें,कहीं भी छपने के लायक नहीं है

-अजय प्रसाद

(8)
आईये आप को दिखाता हूँ मैं बाढ़ का नज़ारा

कैसे जलमग्न हुआ है घर,गावँ,गलियाँ चौबारा ।

वो जो जरा सा मुंडेर दिखाई देता है न पानी में

बस वही तो हुजूर डूबा हुआ है घरवार हमारा ।

आप न करें तकलीफ उतर कर यहाँ देखने की

प्रशासन ने तो किया ही होगा बन्दोबस्त सारा ।

हेलीकाप्टर,मोटरबोट अधिकारी और चपरासी

सब बताएँगे कि कैसे मुश्किलों से है हमें उबारा ।

आप बस राहत की राशि का एलान कर दिजीये

फ़िर देखें कितना जल्द होगा बाढ़ से निपटारा ।

राशि मिलते ही बंदरबाट हो जाएगी आपस में

हमारे इलाकों से बाढ़ का पानी निकलेगा सारा ।

यही परम्परा है जो इमानदारी से निभाई जाती है

पीड़ितों को मिलता है राशन हो जाता है गुजारा ।

तुम भी न अजय हो एक अव्वल दर्जे के बेवकूफ

जहाँ जाते हो खोल देते हो अपने मुहँ का पिटारा ।

-अजय प्रसाद
(9)

शायरों। की महबूबा है गज़ल

आशिकों की दिलरुबा है गज़ल ।

अब क्या कहें कि क्या है गज़ल

बेजुबां शायरी की सदा है गज़ल ।

मीर,मोमिन,दाग,गालिब ही नहीं

कैफ़ि,दुष्यंत की दुआ है गज़ल ।

हुस्न की तारीफ,इश्क़ की नेमत

रकीबों के लिए बददुआ है गज़ल ।

बेबसों की बुलंद आवाज़ ही नहीं

इन्क़लाब की भी अदा है गज़ल ।

उर्दू की शान,अदब के लिए जान

मुशायरों के लिए शमा है गज़ल ।

हर दौर में निखर रही मुस्ल्सल

हर दौर की सच्ची सदा है गज़ल ।

औकात नहीं अजय तेरी, तू कहे

तेरे लिए तो इक बला है गज़ल ।

-अजय प्रसाद
(10)

गजलों को मेरी तू तहजीब न सीखा

मतला, मकता, काफ़िया, रदीफ न सीखा ।

कितनी बार गिराया है मात्रा बहर के वास्ते

कैसे लिखते हैं दीवान ये अदीब,न सीखा ।

देख ले शायरी में हाल क्या है शायरों का

किस तरह रह जाते हैं गरीब न सीखा ।

महफ़िलें, मुशायरें, रिसाले मुबारक हो तुझे

मशहूर होने की कोई तरक़ीब न सीखा ।

गुजर जाऊँगा गुमनाम, तेरा क्या जाता है

शायरी मेरी है कितनी बद्तमीज़ न सीखा ।

हक़ीक़त भी हक़दार है सुखनवरी में अब

ज़िक्रे हुस्नोईशक़, आशिको रकीब न सीखा ।

मेरी आज़ाद गज़लों पे तंज करने वालों

मुझे कैसे करनी खुद पे ,तन्कीद न सीखा ।

पढ़तें है लोग मगर देते अहमियत नहीं

अजय यहाँ है कितना बदनसीब न सीखा

-अजय प्रसाद

(11)

ऐसा नहीं कि गज़ल में सिर्फ़ बहर ज़रूरी है

खुद को बयां करने का भी हुनर ज़रूरी है

रन्ज़ोगम और इश्क़े सितम ही नहीं काफी

होना दिल पर दुनिया का कहर ज़रूरी है।

बारीकी से बर्दाशत करना है हालात को

और जमाने पे बेहद पैनी नज़र ज़रूरी है ।

अदीबों की इज्जत ,रिसालों से मोहब्बत

उम्दा शायरों के शेरों का असर ज़रूरी है ।

नकल नही ,इल्म के वास्ते पढ़ना ज़रूर

मीर,मोमिन गालिब,दाग ओ जफर ज़रूरी है ।

ज़िक्रे हुस्नो इश्क़,आशिक़ो वेबफ़ा ही नहीं

कैफ़ी और दुष्यन्त के साथ सफ़र ज़रूरी है ।

गज़लों में गर तुझे कहनी है बात सच्चाई से

पहले अजय होना इक सच्चा बशर ज़रूरी है

-अजय प्रसाद (बहर =छ्न्द बद्ध होना)

(12)

अपनी शर्तों पे जिया हूँ और कुछ नहीं

खुदा का नेक बंदा हूँ और कुछ नहीं ।

जिंदगी भर बस मुसलसल जद्दोजहद

आंधियों में एक दिया हूँ और कुछ नहीं ।

वक्त करता है रोज़ इस्तेमाल मेरा यारों

लम्हा-लम्हा मर रहा हूँ और कुछ नहीं ।

दिन गुजर जाता है सीखने-सिखाने में

रात सपनों को पढ़ा हूँ और कुछ नहीं ।

मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है

खुद से ही मैं खफा हूँ और कुछ नहीं ।

ढल रही है उम्र अजय अपनों के साथ

गैरों के दिल की दुआ हूँ और कुछ नहीं ।

-अजय प्रसाद

मुसल्सल =continuous

जद्दो-जहद =struggle

(13)

जिम्मेदारियों के साथ , मै कहता हूँ गज़ल

हद से बाहर होती है बात मै कहता हूँ गज़ल ।

हसरतों,ख्वाहिंशो,जरूरतों से जाता खिलाफ़

कर वक़्त से दो-दो हाथ ,मै कहता हूँ गज़ल ।

दिन जिंदगी के जंजालों से,शाम चाहनेवालों से

उलझती है जब मुझसे रात ,मै कहता हूँ गज़ल ।

थकन,घुटन,चुभन,क्या-क्या सहता है ये बदन

फिर जब लड़ती है हयात , मै कहता हूँ गज़ल ।

उदास मन,बेचैन धुन,है जिन्दगी जैसे अपशगुन

ताने देते है जब मेरे हालात,मै कहता हूँ गज़ल ।

झुलस गई जिन्दादिली जद्दो-जहद की आग में

लगते है जलने जब जज्बात ,मै कहता हूँ गज़ल ।

-अजय प्रसाद

देखिए जिसे वो गज़ल लिख रहा है

आए न आए मुसलसल लिख रहा है।

मै,तुम,ये ,वो ,सब के सब ,हर बात पे

हर हालात पे आजकल लिख रहा है ।

कोई बहर में है लिखता,कोई बे-बहर

कोई खुद से,कोई नकल लिख रहा है ।

कोई कहे, मुहब्बत को ज़रखेज ज़मीं

कोई खुबसूरत दलदल लिख रहा है ।

किसी को लगतीं हैं वो आँखें झील सी

कोई उनके चेह्रे को कंवल लिख रहा है ।

कोई खुश है किसी की यादों के साथ

कोई मिलने के लिए बेकल लिख रहा है ।

कोई बेवफ़ा,संगदील,हरजाई,सितमगर

कोई उन्हें ज़िंदा ताजमहल लिख रहा है ।

लोग मसगूल हैं मुस्तकबिल बनाने में

वक्त चेह्रे पे हिसाब हरपल लिख रहा है ।

तू क्यों परेशां हैं खुद से अजय अब तक

क्या तू खामोशी को हलचल लिख रहा है

-अजय प्रसाद

प्यार करना तू अपनी औकात देख कर

हैसियत ही नहीं बल्कि जात देख कर ।

दिल और दिमाग दोंनो तू रखना दुरुस्त

इश्क़ फरमाना घर के हालात देख कर ।

होशो हवास न खोना आशिक़ी में यारों

ज़िंदगी ज़ुल्म ढाती है ज़ज्बात देख कर ।

करना तारीफे हुस्न मगर कायदे के साथ

खलती है खूबसूरती मुश्किलात देख कर ।

क्या तू भी अजय, किसको समझा रहा

डरते कहाँ हैं ये लोग हादसात देख कर

-अजय प्रसाद

वक्त कि मार से तुम बच पाओगे क्या

जो अब तक नहीं हुआ ,कर पाओगे क्या

हो इतने मुतमईन कैसे अपनी वफ़ात पे

जिम्मेदारीयों से यूँही निकल जाओगे क्या

वादा किया था साथ निभाने का उम्रभर

तो मुझको आजमाने फिर आओगे क्या

माना कि हक़ीक़त मे ये मुमकिन ही नहीं हैं

मगर ख्वाबों मे आने से मुकर जाओगे क्या

तुम भी किस बात पे अड़ के बैठे हो अजय

उसने ने कह दिया नही तो मर जाओगे क्या

-अजय प्रसाद

मुतमईन =satisfied मुमकिन =possible

वफ़ात =death मुकर =disobey

आते हैं चैनलों पर क्या क्या इश्तेहार देखिए

पहुँच गया है अब तो घर-घर बाज़ार देखिए ।

साबुन,शैम्पू और कॉस्मेटिक्स के साथ-साथ

बिकतें हैं आजकल पर्व और त्यौहार देखिए ।

सिंगिंग, डांसिंग, कुकिंग और डेयरींग कॉन्टेस्ट

उसपर संडे ब्लॉकबस्टर से सजा इतवार देखिए ।

वीकएंड पे पार्टी जैसे शामें जुहू और चौपाटी

मस्ती मे चूर अब मध्यम वर्गीय परिवार देखिए

मत कहिये दोस्तों कि कुछ भी करतें नहीं हैं वो

हरकत में आ गयी है चुनावों में सरकार देखिए

-अजय प्रसाद

पाती प्रेम भरी कोई लिखी ही नहीं

मुझे मेरे जैसी कोई मिली ही नहीं ।

इज़हार न इकरार,न किसी से प्यार

मेरी किस्मत में है आशिक़ी ही नहीं ।

फूलों की चाह में काँटे ही मिले यारों

मेरे तक़दीर में खुशकिस्मती ही नहीं ।

खुदा जाने क्या हुई है खता मुझसे

करता मुझ से कोई दोस्ती ही नहीं ।

खुश रहे खुदा मुझे नहीं कोई शिकवा

तेरे आगे किसी की भी चलती ही नहीं ।

-अजय प्रसाद

ईंट का जवाब पत्थर हो ज़रूरी नहीं

मौत ज़िंदगी से बेहतर हो ज़रूरी नहीं ।

हाँ जी लेते हैं कुछ लोग गफलत में

हर किसी को मयस्सर हो ज़रूरी नहीं ।

खुदकुशि कर लेतीं हैं खुशियाँ खुशी से

मौत हमेशा मंजिल पर हो ज़रुरी नहीं ।

मुरझा जातीं हैं मायूसी भी हाल देख के

ज़ाहिर हर बार चेहरे पर हो ज़रूरी नहीं ।

हारना भी जीत का ही आगाज़ है अजय

जीतना तुम्हारा मुक़्द्दर हो ज़रूरी नहीं

-अजय प्रसाद

इससे पहले कि दोनो बदल जाएं

आओ वक्त रहते हम संभल जाएं ।

कोई वादा न करें, न कसम खाएं

छुड़ा के हाथ हम दूर निकल जाएं ।

न कोई गिले शिकवे,न करें मलाल

लफ्ज़-ए-मजबूरियाँ निगल जाएं ।

बिना किसी पे दिये कोई इलज़ाम

दिल से एक दूजे के निकल जाएं ।

बड़ा शौक था न ईश्क़ फरमाने का

अब कहो अजय हम फ़िसल जाएं ।

-अजय प्रसाद

आसान नहीं है आजकल बच्चों को बड़ा करना

पढ़ा लिखा कर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना ।

तकनीक ने कर दी है तबाह मासूमियत उनकी

नहीं भाता है उन्हें आपस में प्यार से लड़ा करना ।

नज़रंदाज़ करतें हैं बुजुर्गो के नसीहतों को बेखौफ़

बुरा मानते हैं अब उस्तादों का,तमाचे,जड़ा करना ।

खुदगर्ज ख्वाहिशों के तले दफ़न है बचपन कहीं

वो छोटी-छोटी चीजों के लिए ज़िद पे अड़ा करना ।

जाने अजय कब होगा खत्म चलन ये ज़माने का

देख कर तरक्की औरों की नज़रों में गड़ा करना

-अजय प्रसाद

पलायन इन्सानों का नहीं इंसानियत की है

जंग लगी रहनुमाई और सड़े सियासत की है ।

अब तो बात हद से भी है आगे निकल चुकी

अब कहाँ यारों काबू में सब ज़्म्हुरियत की है ।

दोषारोपण के खेल में हैं माहिरों की जमातें

किसको कितनी चिंता यहाँ आदमियत की है ।

क्या बताएं कितनी तंगहालि में लोग जी रहे

किस कदर किल्लत आज नेक नियत की है ।

बेकार में अजय तू भी क्या बकवास है करता

खुदगर्जी में लिपटी लाश ये मासूमियत की है

-अजय प्रसाद

हमसे हमारे ख्वाब न छीन

काँटों भरी गुलाब न छीन ।

जिंदा तो हूँ गफलत में सही

यादों की ये सैलाब न छीन ।

बेहद सुकून से रहते हैं यहाँ

सुखे फूलों से किताब न छीन ।

कुछ तो रहम कर मेरे खुदा

मेरे हिस्से की अज़ाब न छीन ।

कहने दे मुझे नाकाम आशिक़

रकीबों से मेरा खिताब न छीन ।

हक़ है उन्हें भी बात रखने का

मजलूमों से इंकलाब न छीन ।

नये दौर मे तरक्की है जाएज़

मगर बच्चों से आदाब न छीन ।

जिंदा रख अजय अपने को

खुद से दिले बेताब न छीन

– अजय प्रसाद

चार दिन चांदनी फिर वही रात है

आजकल इश्क़ में ऐसा ही हाल है ।

पानी के बुलबुले जैसी है आशिकी

अब न मजनू है कोई ,न फरहाद है ।

हुस्न में भी वो तासीर अब है कहाँ

वो न लैला न शीरी की हमजाद है ।

जिस्मों में सिमट कर वफ़ा रह गयी

खोखलेपन से लबरेज़ ज़ज्बात है ।

माशुका में न वो नाज़ुकी ही रही

आशिकों में कहाँ यार वो बात है

इश्क़ में इस कदर है चलन आजकल

रोज जैसे बदलते वो पोशाक है

मतलबी इश्क़ है मतलबी आशिकी

प्यार तो अब अजय सिर्फ़ उपहास है ।

-अजय प्रसाद

जाने वो लम्हा कब आएगा

जब कुआँ प्यासे तक जाएगा ।

झाँकना अपने अन्दर भी तू

खोखला खुद को ही पाएगा ।

कब्र को है यकीं जाने क्यों

लाश खुद ही चला आएगा ।

थूका जो आसमा पे कभी

तेरे चेह्रे पे ही आएगा ।

इश्क़ में लाख कर ले वफ़ा

बेवफ़ा फ़िर भी कह लाएगा ।

वक्त के साथ ही ज़ख्म भी

देखना तेरा भर जाएगा

रख अजय तू खुदा से उम्मीद

वो रहम तुझ पे भी खाएगा ।

-अजय प्रसाद

कत्ल कर के मेरा, कातिल रो पड़ा

कर सका कुछ जब न हासिल,रो पड़ा ।

खुश समन्दर था मुझे भी डूबो कर

अपनी लाचारी पे साहिल रो पड़ा ।

आया तो था वो दिखाने धूर्तता

सादगी पे मेरी कामिल रो पड़ा।

जो बने फिरते हैं खुद में औलिया

हरकतों पर उन की जाहिल रो पड़ा ।

की मदद मज़दूर ने मजदूर की

अपनी खुदगर्जी पे काबिल रो पड़ा ।

जा रही थी अर्थी मेरे प्यार की

हो के मैयत में मैं शामिल, रो पड़ा ।

बिक गया फ़िर न्याय पैसों के लिए

बेबसी पे अपनी आदिल रो पड़ा

-अजय प्रसाद

रोज़ पढ़ता हूँ तुझे मैं अखबार की तरह

सुनता हूँ तेरी हर बात समाचार की तरह ।

तू मुझे देखे या न देखे ये तेरी मरज़ी है

देखता हूँ मैं तुझे आखरी बार की तरह ।

कितनी आसानी से मुकर जाते हैं लोग

भूल जाते हैं वायदे नयी सरकार की तरह ।

ज़माना तरस रहा है देखने को वो ज़माना

जब रहते थे सब मिलकर परिवार की तरह ।

पड़ने लगें हैं दौरे तुम पे अजय पागलपन के

आज कल लिख रहे हो इमानदार की तरह ।

-अजय प्रसाद

रौशनी भी तो अन्धेरे की मोहताज है

जैसे कल के पहलू में होता आज है ।

गैरतमंद हो गए हैं मुलाजिम मामूली

और बेगैरत यहाँ करते अब राज है

पनप रहा प्यार जिस्मों में पंगु हो कर

न कोई शाहज़हां न कोई मुमताज है

चहकती नहीं चिड़ियाँ अब तो मुंडेर पे

ये खामोशी यारो खतरे की आवाज़ है

ज़ख्म देकर ज़माना है बड़ा मुस्कुराता

खत्म अब मरहम लगाने का रिवाज है

तोड़ कर रस्मो को चलते हैं जो यहाँ

ठुकराता उसको पहले सभ्य समाज है

-अजय प्रसाद

पज़िराई=welcome इज़ाफा=increase

बड़ी बेरुखी से वो मेरी पज़िराई करता है

जैसे कि बकरे को हलाल कसाई करता है ।

भूल जाता हूँ मैं उसके हर वार को दिल से

जब भी मुस्करा कर मेरी कुटाई करता है ।

अज़ीब दस्तूर है इश्क़ में आजकल दोस्तों

सोंच समझकर आशिक़ बेवफाई करता है ।

हो जाता है इज़ाफा उसके चाहनेवालों में

जब कभी भी कोई उसकी बुराई करता है ।

बड़े आराम से रहते हैं मसले मेरे मुल्क के

क्योंकि यहाँ शासन ही अगुआई करता है ।

-अजय प्रसाद

कह दूँ

भरी दुपहरी को चांदनी रात कह दूँ

कदमों में तेरे मैं पूरी कायनात रख दूँ ।

फ़िर मत कहना कि मैंने बताया नहीं

तू कहे तो घर के सारे हालात रख दूँ ।

छुप कर इज़हारे इश्क़ मुझे मंजूर नहीं

भरी महफिल में दिल की बात रख दूँ ।

जरा सोंच ले मुझे आजमाने से पहले

कहीं तेरे आगे न तेरी औकात रख दूँ ।

गर हो जाये जानेमन तुझे रिश्ता कबूल

तो घर पे तेरे मैं अपनी बारात रख दूँ ।

-अजय प्रसाद

रह कर खामोश खुद को सज़ा देता हूँ

बेहद गुस्से में तो बस मुस्कुरा देता हूँ ।

सब नाराज़ हो कर क्यों जुदा है मुझसे

कहते हैं लोग मै आईना दिखा देता हूँ ।

क्यूँ रह गया महरूम उनके नफरत से भी

अक़्सर ये सोंच कर आँसू बहा देता हूँ ।

फूलों की अब नही है चाह मुझको यारों

काँटों से भी अब रिश्ते मै निभा देता हूँ ।

मिल जाए आसरा भी ज़रा रातों को

अक़्सर शाम ढलते ही दीया बुझा देता हूँ

-अजय प्रसाद

कोशिशें मेरी रंग लायेगी ज़रूर

सफ़र में हूँ मंजिल आयेगी ज़रूर ।

लाज़्मी है लगना ठोकर रास्तों पर

ज़िंदगी मेरी संभल जायेगी ज़रूर ।

लगेगा वक्त लोगों को अपनाने में

दावते सुखन कभी आयेगी ज़रूर ।

भले हो बाद मेरे मरने के शायद

गजलें मेरी वो गुनगुनायेगी ज़रूर ।

आज खुश है मुझे देख कर परेशां

नाकामीयां मेरी पछतायेगी ज़रूर ।

-अजय प्रसाद

जिंदगी यूँ ही जज्बात से नहीं चलती

फक़त उम्दे खयालात से नहीं चलती ।

रुखसत होता हूँ रोज घर से रोज़ी को

गृहस्थी चंदे या खैरात से नहीं चलती ।

मुसलसल जंग है जरूरी जरूरतों से

हसीं ख्वाबो एह्ससात से नहीं चलती ।

रज़ामंदी रूह की लाज़मी है मुहब्बत में

बस जिस्मों के मुलाकात से नहीं चलती ।

कब्र की अहमियत भी समझो गाफिलों

दुनिया सिर्फ़ आबे हयात से नहीं चलती ।

-अजय प्रसाद

जल रहा है वतन ,आप गज़ल कह रहे हैं

सदमे में है ज़ेहन ,आप गज़ल कह रहे हैं ।

कुछ तो शर्म करें अपनी बेबसी पे आप

जख्मी है बदन ,आप गज़ल कह रहे हैं ।

जले घर , लूटी दुकानें, गई कितनी जानें

उजड़ गया चमन,आप गज़ल कह रहे हैं ।

कर ली खुलूस ने खुदकुशि खामोशी से

सहम गया अमन ,आप गज़ल कह रहे हैं ।

खौफज़दा चीखों में लाचारगी के दर्दोगम,

है दिल में दफ़न ,आप गज़ल कह रहे हैं ।

दोस्ती,भाईचारा,और भरोसे की लाशों ने

ओढ़ लिया कफ़न ,आप गज़ल कह रहे हैं ।

रास्ते,गलियाँ,घर बाज़ार सब वही है मगर

है कहाँ अपनापन आप गज़ल कह रहे हैं ।

क्या कहें अजय हालत मंदिरो,मस्जिदों की

सब हैं आज रेहन आप गज़ल कह रहे हैं

-अजय प्रसाद ( रेहन =बंधक )

इस कदर हम से खफ़ा है वो

जिंदा रहने की देता दुआ है वो ।

ख्व़ाब कोई न पनप जाए कहीं

हैसियत मेरी बता देता है वो ।

डरता रहता हूँ तन्हा होने से मैं

अपनी यादों में बुला लेता है वो ।

नामुमकिन है बचना यारों उससे

खूबसूरत हसीन इक बला है वो ।

फूल,तितली, खुशबू,या है तारा

अब क्या कहें अजय क्या है वो ।

-अजय प्रसाद

फ़ले फुले अमीर और गरीबों का भी गुजारा हो

डूबते हुए को कम से कम,तिनके का सहारा हो ।

हर तरफ चैन-ओ-अमन और महफ़ूज हो वतन

या खुदा अपने मुल्क मे एसा भी तो नजारा हो ।

ज़ुल्म मिटें,इल्म बढ़े,और हो हरकोई खुशहाल

मिल-जुलकर सब रहें यहाँ,दिल में भाईचारा हो ।

रोटी,कपड़ा और मकान,हो न्याय में सब समान

न कोई गरीब, न कोई बेबस, न कोई बेचारा हो ।

चाहे हो कोई दिन ,वार,पर्व या कोई भी त्योहार

रौशन हर मंदिर ,मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारा हो ।

-अजय प्रसाद

जल गया रावण अहंकार रह गया

फ़िर एक बार राम लाचार रह गया ।

मोह, माया ,क्रोध,वासना और लालच

जिंदा आदमी में सब विकार रह गया ।

आचरण में इंसानियत और सच्चाई

बन के फ़कत आज विचार रह गया ।

शैतान शर्मिन्दा है हरकतों पे हमारी

हो के सादगी का वो शिकार रह गया ।

फ़िर न होश में आ सका ये ज़माना

मानसिक रूप से जो विमार रह गया ।

कोई काम न आई तेरी सब कोशिशें

अजय तू आज तक बेकार रह गया ।

-अजय प्रसाद

भगवान तू है मौजूद, मुझे इसपे शक़ नहीं

मगर हुआ मेरे दिल को यकीं अबतक नहीं

पूजा,नमाज़,हज़ और तीर्थ गर है सच्चा

फिर सीखते हैं लोग भला क्यूँ सबक नही

रामयण,महाभारत,कुरान, बाईबिलौ गीता

पढ़ के गर हैं लड़तें ,तो क्या अहमक नही

जी रहें इस दौर में हम बगैर ज़िंदादिली के

जायका-ए-जिंदगी मे जैसे है नमक नही ।

हर चीज़ अपनी जगह लगती है अधूरी सी

महफिलों मे भी अब रह गई वो रौनक नही ।

-अजय प्रसाद

करके गंगा स्नान अपने पाप धो रहें हैं

सोंचते हैं गुनाह उनके माफ़ हो रहें हैं ।

पूजा-पाठ,दान और ध्यान,धरम ,करम

सारे दिखावे आजकल साथ हो रहें हैं ।

चुस कर खून गरीबों का बने हैं अमीर

वही लोग अब गरीबी का रोना रो रहें हैं ।

सियासत पे सितम जो वर्षो ढोते रहे थे

आज दिलों में नफरत के बीज बो रहें हैं ।

बदनसीबी हमारी अब क्या कहें अजय

लाश अपने अरमानों का आप ढो रहे हैं ।

– अजय प्रसाद

दिल में कोई उम्मीद पनपने नहीं देते

जिम्मेदारियां मेरी मुझे बहकने नहीं देते ।

बस भटकना ही मेरी तक़दीर है शायद

रास्ते मुझे मंजिल तक पहुंचने नहीं देते ।

कुरेद ही देते हैं अक़्सर सूखने से पहले

कुछ लोग मेरे ज़ख्मों को भरने नहीं देते ।

चाहता तो हूँ मैं साथ जमाने के चलना

मगर ईमानदारी से मुझे चलने नहीं देते ।

गरीबी में ज़िन्दगी गुजारना शौक नहीं है

हालात मेरी हैसियत ही बदलने नहीं देते

-अजय प्रसाद

सज़दे मे नहीं गये तो कभी शिकायत नहीं की

यूँ हीं बेदिली से हम ने कभी इबादत नहीं की ।

कर खुद को दिया खामोशी से हवाले जहां के

रिश्तों की हुकूमत से कभी बगावत नही की ।

हर शख्स ने दिया दगा है मुझे दोस्त बनकर

मगर मैने तो इंसानियत से खिलाफत नही की

जिंदगी ने तो जमकर इस्तेमाल किया है मेरा

और मौत ने मुझपर कभी इनायत नहीं की ।

फिर कहीं मुझसे नाराज़ न हो मेरी तन्हाइयां

यादों की इसलिए मैने कभी हिफाजत नही की ।

-अजय प्रसाद

आशिक़ी मेरी सबसे जुदा रही

ज़िंदगी भर वो मुझसे खफ़ा रही ।

देखता मैं रहा प्यार से उन्हे

बेरुखी उनकी मुझ पर फिदा रही ।

ये अलग बात है उनके हम नहीं

वो हमेशा मगर दिलरुबा रही ।

रात भी, ख्व़ाब भी ,नींद भी मेरी

फ़िक्र तो उनके बश में सदा रही ।

जोड़ना दिल मेरी कोशिशों में थी

तोड़ना दिल तो उनकी अदा रही ।

वक्त के साथ वो भी बदल गए

वास्ते दिल में जिनके वफ़ा रही ।

क्या करें अब, अजय तू ज़रा बता

मेरी किस्मत ही मुझसे खफ़ा रही ।

-अजय प्रसाद

खुद से ही आज खुद लड़ रहा आदमी

अपनी ही जात से डर रहा आदमी

दौड़ते भागते सोते औ जागते

सपनो के ढेर पर सड़ रहा आदमी ।

इस कदर मतलबी बन गया आज वो

खुद के ही नज़रो में गड़ रहा आदमी ।

रात दिन छ्ल रहा अपने ही आपको

अपनो के पीछे ही पड़ रहा आदमी ।

अब अजय इस जमाने की क्या बात हो

आदमी से जहाँ जल रहा आदमी

-अजय प्रसाद

नया साल मुबारक हो!!!

नये साल के जश्न में डूबी रात मुबारक हो

वही मुल्क और वही हालात मुबारक हो ।

वही सुबह, वही शाम, वही नाम ,वही काम

वही उम्मीदों की झूठी सौगात मुबारक हो ।

वही मिलना, बिछड़ना,रूठना और मनाना

ज़िंदगी से फिर वही मुलाकात मुबारक हो ।

तकनीकी तरक़्क़ी और खोखली रंगरलिया

दम तोड़ती तहजीब की वफ़ात मुबारक हो ।

बेलगाम नयी पीढ़ी, लिए खुदगर्ज़ी की सीढ़ी

रिश्तों ,रिवाजों से दिलाते नीज़ात मुबारक हो ।

लूट,मार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार और ब्लात्कार

अन्धा कानून और बेजा हवालात मुबारक हो ।

आत्महत्या करते किसान,बेरोजगार नौजवान

आतंकित समसामयिक सवालात मुबारक हो ।

शोर शराबा ,अश्लील पहनावा और नंगा नाच

गालियों से भरे बेसुरे भद्दे नगमात मुबारक हो ।

मुद्दों से भटके चैनलों पे चर्चे,बेशर्म नुमाइंदों के

करते टीवी पे बद ज़ुवानी फंसादात मुबारक हो

हर बार की तरह ,हर साल की तरह हम सब को

अजय,उम्मीद पे कायम ये कायनात मुबारक हो ।

-अजय प्रसाद

वक्त के साथ जो चल नहीं पाते

हैसियत अपनी बदल नहीं पाते ।

जो फिसल गये यारों जवानी में

उम्र भर फिर वो संभल नहीं पाते ।

लाख करें हम कोशिश बचने की

मौत के डर से, निकल नहीं पाते ।

सड़ जातें हैं तालाब की मानींद

हद से कभी जो निकल नहीं पाते ।

हासिल उन्हें होती है कामयाबी

इरादे जिनके कभी टल नहीं पाते

-अजय प्रसाद

गिर चुका है मेरी नजरों से वो ज़माने का क्या

गुजर गया है वक्त मगर उस फसाने का क्या ।

चलो ठीक है आज वो मुतमईन हैं हालात से

कल मझधार में छोड़कर आए बहाने का क्या ।

खुदा ने दी है कुव्वत सोचने समझने,परखने की

जानबूझकर ही जो सोए हैं उन्हें जगाने का क्या ।

आकर मैयत पे हुई है आँखें जो उनकी आज नम

रूठ जब मैं ज़िंदगी से ही गया तो मनाने का क्या

अब तो दर्द भी दुआएं ज़्ख्मों को देने लगें हैं दोस्तों

ज़रा सोंचियें फ़ायदा होगा भी अब सताने का क्या ।

औकात तेरी अजय तू जान ले दो कौड़ी भी नहीं है

भला फ़िर करेगा तू कोशिश नाम कमाने का क्या ।

-अजय प्रसाद

(आज़ाद गज़ल)

कर चुके ज़लील,अब ज़र्रानवाज़ी होनी चाहिए

शराफत में नज़ाकत भी शैतानी होनी चाहिए

फ़कत अवाम के वोट से कुछ नहीं होता अब

सत्ता के लिए कुछ तिकड़मवाज़ी होनी चाहिए ।

नये दौर में नये तरीकों की सियासत लाज़मी है

जम्हुरीयत के नाम पर जुम्लेबाजी होनी चाहिए ।

पूछे कोई सवाल और न कहीं करे कोई बवाल

जहाँ करें सब गुलामी,वो आज़ादी होनी चाहिए ।

हड़तालें,तोड़फोड़,और आगजनी में मददगार

लोगों को भड़काने को नारेबाजी होनी चाहिए ।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना इनका मक़सद नहीं

चाहते हैं हिंसा और पत्थर बाजी होनी चाहिए ।

गरीबों की गरीबी और अमीरों की अमीरी में

रहनुमाओं की भरपूर हिस्सेदारी होनी चाहिए ।

हर बात पे कोसना सरकार को भी ठिक नहीं

यारों अपनी भी कुछ जिम्मेदारी होनी चाहिए ।

-अजय प्रसाद

वक्त और हालात बिक रहे हैं

जिस्म और ज़ज्बात बिक रहे हैं ।

इस खुदगर्ज दुनिया मे दोस्तों

रिश्ते और औकात बिक रहे हैं ।

बिक रही लैला, बिक रहे मजनूँ

जुदाई और मुलाकात बिक रहे हैं ।

बिक रही ज़र,ज़ोरू,ज़मीं वर्षों से

मज़हब और जात बिक रहे हैं ।

रास्ते बिक रहे हैं मंजिलें बिक रही

सफ़र और सौगात बिक रहे हैं ।

-अजय प्रसाद

मै तो गया गुजरा ठहरा ,तू बता

हाशिये पे हरदम ही रहा,तू बता ।

थी हैसीयत नही की बात रखता

उपर से हुजूर भी खफा, तू बता ।

न दवा,न दुआ,न कोई उम्मीद की

हस्र मुझे था पहले पता, तू बता ।

अपने लिए तो मय्य्सर ही न हूई

चाहत दोस्ती और वफा, तू बता ।

तारीफ़ न सही तनक़ीद तो कर

आखिर हूँ मैं सबसे जुदा, तू बता

मौत मुस्कुराती है हालात पे मेरी

ज़िन्दगी बन गई है सज़ा, तू बता ।

न रहम, न करम वक्त भी बेरहम

फेर लिया है मुहँ भी खुदा,तू बता ।

छ्पना,पढ़ना,रद्दी के भाव बिकना

आखिर तो होना है फना तू बता ।

तेरी हस्ती से मुझे कोई गुरेज़ नहीं

फ़िर अजय से क्यों चिढ़ा,तू बता ।

-अजय प्रसाद

आईये फहराएं तिरंगा जश्न-ए-आजादी है

हालात से मत हो अचंभा जश्न-ए-आजादी है

बेरोजगारी,भ्रष्टाचारी,बलात्कारी के साथ ही

रहे कौम में भूखा नंगा जश्न-ए-आजादी है।

हिंसक भीड़ के हाथों होते संहार इंसानों का

मज़हब के नाम फ़ले दंगा जश्न-ए-आजादी है ।

तकनिकी दौर में तरक्की करती नई पीढियाँ

खुदगर्ज़ सोंच,बाल बेढंगा जश्न-ए-आजादी है ।

जाने भी दे अब इतनी बेरुखी भी नहीं अच्छी

मत ले अजय आज पंगा जश्न-ए-आजादी है ।

-अजय प्रसाद

हमसे हमारे सरकार खफ़ा हैं

जाने क्यों बरखुरदार खफ़ा हैं ।

चिढ़े-चिढ़े रहते हैं वो आजकल

क्या कहें कब से यार खफ़ा हैं ।

शक उन्हें है हमारी वफाओं पे

शिकवे-गिले भी हज़ार खफ़ा हैं ।

लाख जतन कर के हार गए हम

दिल में दर्दोगम के गुबार खफ़ा हैं ।

जाँ दे कर अजय उन्हें मनाऊँगा

शायद इल्म हो के बेकार खफ़ा हैं ।

-अजय प्रसाद

खिसक रही है ज़मीं पाँव तले से

और खौफ ज़रा नहीं जलजले से ।

अजीब दौर है आ गया अब दोस्तों

खुदगर्जी फैल रही अच्छे भले से ।

न किसी को मतलब है किसी से

न कोई लगाता है किसी को गले से ।

वो तो नफरत से ही देगा हर जवाब

पूछ रहे हो हाल गर दिल जले से ।

तू भी अजय किसे समझा रहा है

बात उतरेगी ही नहीं इनके गले से ।

-अजय प्रसाद

आशिक़ी मेरी दोस्तों अधूरी रही

ख्वाबों में भी उनसे मेरी दूरी रही ।

बेवफा क्यों उसे कहें हम भला

कुछ तो अपनी ही मज़बूरी रही ।

न इज़हार,न करार, न कोई तकरार

जुदाई में हमारी रब की मंजूरी रही ।

न सजदे में गए और न शिकवे किए

मुहब्बत में खामोशी जो ज़रुरी रही ।

कामयाबियों ने चूमे कदम उनके हैं

आदतों में जिनकी जी हुजूरी रही ।

-अजय प्रसाद

दिमागी दिवालियेपन की हद है

ख्वाबों में जीने की जो आदत है ।

इमानदारी से मेहनत के बगैर ही

चाह बेशुमार दौलत की बेहद है ।

हश्र पता है सबको अपना मगर

अपनी नज़रों में सब सिकंदर है ।

नंगापन,ओछापन, बदजुबानी ही

शोहरत के लिए अब ज़रूरत है ।

रखकर तहजीबों को ताख पर

करते बुजुर्गो से रोज बगावत है ।

क्या करेगा अजय तू चीख कर

सुनता कौन तेरी यहाँ नसीहत है ।

-अजय प्रसाद

हादसों के बीच पला हूँ

खुद के लिए ही बला हूँ

नूर यूँ ही नहीं है चेह्रे पे

हँस कर गमों को छला हूँ

मन्नतें कभी पूरी हूई नहीं

दुआओं को भी खला हूँ ।

छाछ हूँ फूँक कर पीता

यारों मैं दुध का जला हूँ ।

मंज़िल कि है तलाश मुझे

अकेले ही सफर पे चला हूँ ।

हाँ,इक बुरी लत है मुझमें

चाहता सबका मैं भला हूँ ।

-अजय प्रसाद

जहाँ कद्र न हो आपकी जाया न करें

हालात पे किसी के मुसकुराया न करें ।

पता नही कौन,कहाँ,कैसे काम आए

हर किसी को दर से ठुकराया न करें ।

नये दौर मे नये सलीके से पेश आये

वेबज़ह अपनी नसीहत ज़ाया न करें ।

जो है हक़ीक़त उसे कर लें हम कबूल

झूठी आश से खुद को भरमाया न करें ।

बेशकीमती हैं वोट आपके ज़रा समझें

जात-पात के नाम पर यूँ लुटाया न करें ।

-अजय प्रसाद

तक़सीम हुआ था मुल्क मसाइलों के लिए क्या

आज़ादी हमने पाई इन काहिलों के लिए क्या ।

देते खोखले आश्वासन,बहाते हैं घड़ियाली आसूँ

जाँ गँवाई जवानों ने इन जाहिलों के लिए क्या

दफन है दफ्तरों में तरक्की अनगिनत गावों की

किए थे वायदे फक़त फाइलों के लिए क्या ।

-अजय प्रसाद

आँखों में है दो तस्वीरें मेरे वर्तमान भारत की

इक तरफ़ है नजरें,इनायत इक पे हिकारत की ।

भूख ,गरीबी ,झोपड़पट्टी बेबस ओ लाचारी है

दूजे तरफ़ है देखिये मॉल मस्ती व तिज़ारत की ।

लुटती अस्मत, पिटती जनता, और झूठे वादे है

ढाते जुल्म वही है जो खाते कसम हिफाजत की ।

लेकर कर्ज करोडों का ऐश करते हैं बिदेशों मे

जान गवांनी पड़ रही हैं जिन्होंने शराफ़त की ।

नाम बदलने से क्या नजरिया बदल जायेगा

इक हमाम मे सब नंगे हैं रहनुमा सियासत की।

-अजय प्रसाद

चलिए हम आज मॉल चलकर देखतें हैं

कुछ पलों को माहौल बदलकर देखतें हैं !

उम्र भर के लिए तो शायद नामुमकिन है

हाँ कुछ दूर आपके साथ टहलकर देखतें हैं ।

फूँक फूँक के कदम बहुत रक्खा है मैंने

सोंचता हूँ अब क्यूँ न फिसलकर देखते हैं ।

पहले तो मुहल्ले में सब मिलकर ही रहते थे

अब तो, थोड़ा रुक कर ,संभलकर देखतें हैं ।

भूल कर माज़ी की बातें,हाल को सँवारें हम

निकल चुका वो ,इससे भी निकलकर देखतें हैं ।

-अजय प्रसाद

चाहता जो हूँ अभी लिख पाया कहाँ

वो मिजाज, वो फलसफ़ा आया कहाँ

आप कहतें है, उम्दा है ,तो शायद होगा

मेरे मुताबिक मै अभी सोच पाया कहाँ

सोई है जनता कब से गफ़लत की नींद मे

उन्हे ठीक से अभी मै जगा पाया कहाँ

सिर्फ़ बदन नही ,जेहन तक जो हिला दे

वो तब्दीली के तलातुम ला पाया कहाँ

गज़लों मे तेरी ,अजय अभी बेहद कमी है

वो लहजा,वो पैनापन अभी आ पाया कहाँ

***

Storm =तलातुम ,

-अजय प्रसाद

भिखारी भी भीख देने वाले को दुआ देता है

और नेता वोट देने वालों को ही भूला देता है ।

जानता है बखूबी सियासत को जिंदा रखना

धर्म व जात के नाम पे लोगो को लड़ा देता है ।

मारे जाते है भूखमरी से न जाने कितने गरीब

सरकारी लापरवाही टनों अनाज सड़ा देता है ।

शक रिश्तों में कर देता है पैदा दरारें गहरी

खलीश जिगर में दुशमनी को हवा देता है ।

मत कर गरूर अजय अपनी बुलंदी पे अभी

वक्त शख़्स की शख्सियत तक मिटा देता है ।

-AJAY PRASAD

TGT ENGLISH DAV PS PGC

BIHARSHARIF,NALANDA,BIHAR

बच्चों को एक संयुक्त परिवार दे नहीं पाया

अच्छी परवरिश भी मैं यार दे नहीं पाया ।

मोबाइल,शिक्षा,ऐशो-आराम कपड़े तो दिये

मगर अफसोस अच्छे संस्कार दे नहीं पाया ।

व्हाट्सप,फेसबुक ,टिकटोक ,ट्विटर से परे

तकनीक से अलग रिशतेदार दे नहीं पाया ।

दादा दादी का प्यार,न नाना नानी का दुलार

अपनेपन से भरपुर इक त्योहार दे नहीं पाया ।

फास्टफूड आहार और है मशीनी सोंच विचार

पर ज़िंदादिल ज़्ज़्वाती व्यबहार दे नहीं पाया ।

ख्वाहिशें,फ़रमाइशें और ज़िद मान ली उनकी

मगर एक भी ज़ायज़ इन्कार दे नहीं पाया ।

-अजय प्रसाद

रौनक मेरी महफिलों की कोई और ले गया

वो शानो-शौकत,वो फिज़ा, वो दौर ले गया ।

ढलते ही उम्र वो चमक झुर्रियों में बदल गई

मेरे चेह्रे पे टिकती निगाहों का गौर ले गया ।

बागों में टहलना,बारिशों में भींगना, भींगाना

वो शाम,वो नदी का किनारा,वो ठौर ले गया ।

तक़नीक और तरक्की तो अमीरों को भा गई

गरीबों की तो रोज़ी,औ खाने का कौर ले गया ।

नाज़ जमाने के उठाते फिरते थे हम शौक़ से

जो कभी सजते थे सर पे वो सिरमौर ले गया

-अजय प्रसाद

(1)

जी लेंगे झोंपड़ी में हुजूर चिंता न करें

यही है गरीबी का दस्तूर चिंता न करें ।

आप तो फ़िक्र करें अमीरों के लिए

हम लोग तो हैं मज़दूर चिंता न करें ।

मतदान से पहले आप ये दान दे रहे हैं

आप भी हैं खुद मज़बूर चिंता न करें ।

शिकवा क्या करना जब फ़ायदा नहीं

हम तो हैं ही एक फ़ितूर चिंता न करें ।

तुम भी न अजय उटपटांग बकते हो

जाने कब आएगा शऊर चिंता न करें ।

-अजय प्रसाद

(2)

देखता हूँ भूखा हैऔर नंगा है

मगर हाथों में लिये तिरंगा है ।

हक़ उसे है जश्ने-आज़ादी का

क्या हुआ अगर भिखमंगा है ।

देशभक्ति उसकी रग रग में है

जैसे वो जल पवित्र गंगा है ।

फ़िक्र वो भी करता है देश की

लेता रोज़ वो गरीबी से पंगा है ।

मैला है तन से मन में मैल नहीं

यारों जैसे कठौती में गंगा है ।

-अजय प्रसाद

(3)

ढाक के तीन पात मैं नहीं लिखता

दिल के खयालात मैं नहीं लिखता ।

आँखो से उतर आती है कागज़ पे

सपनों की सौगात मैं नहीं लिखता ।

न आंखे झील सी हैं न चेहरा कंवल

हुस्न के हालात मैं नहीं लिखता ।

बेवफाई,जुदाई हरज़ाइ या गमेइश्क़

घिसे-पिटे ज़ज्बात मैं नहीं लिखता ।

सुन ले अजय कुछ ज्यादा हो गया

मत कहना दिन रात नहीं लिखता ।

-अजय प्रसाद

(4)

करता हूँ मैं कमेंट्स तो आपको भी करना होगा

चाहे घटिया ही पोस्ट करूँ लाइक्स भरना होगा ।

देखिए यहाँ सोशल मीडिया का है यही दस्तूर

इस परम्परा का निर्वाह आपको भी करना होगा ।

स्थापित साहित्यकारों की बात मैं नहीं कर रहा

मगर आप हो टुच्चे तो ज़रा मुझसे डरना होगा ।

जब भी लाइव आऊँ, तो तारीफ़ और बड़ाई करें

मेरे आलोचकों को आपको ब्लॉक करना होगा ।

अजय तुम तो खुद ही बहुत हो समझदार शायर

सब पता है कि आपको क्या क्या करना होगा

-अजय प्रसाद

(5)

तसव्वुर में भी तेरी मुझे मत बुलाना

भूलकर भी कभी खवाबों मत आना ।

ठेका लिया नहीं मैनें नखरे उठाने का

ये नज़ाकत किसी और को दिखाना ।

भूत जो सर पे सबार था तेरे इश्क़ का

अब तो उतरे भी हो गया है जमाना ।

बेवफ़ा कहना भी तौहीन है मेरे लिए

काफ़ी है तुझे मेरी नजरों से गिराना ।

चल किसी और को अब बना उल्लु

तजुर्बों ने अजय को कर दिया सयाना

-अजय प्रसाद
(6)

अजीबोगरीब खौफ़नाक मंज़र देख रहा हूँ

चलते फिरते खुबसूरत खंडहर देख रहा हूँ ।

मिलतें हैं मुस्कुराकर हाथों में हाथ डाले ये

मगर ज़मीं दिल की बेहद बंज़र देख रहा हूँ ।

किश्तियाँ डूबती कहाँ अब किनारों पे आके

साहिलों से सूखता हुआ समंदर देख रहा हूँ ।

आइने यारों चिढाने लगते हैं देखकर मुझे

रोज़ खुद का ही अस्थि पंजर देख रहा हूँ ।

क़त्ल कर देता है जो कैफ़ियत बचपन से

हर बच्चे के हाथ में वो खंजर देख रहा हूँ ।

मेरी हस्ती भी अजीब दो राहे पर खड़ी है

हुई है अपनी गती साँप छ्छुंदर देख रहा हूँ

-अजय प्रसाद
(7)

खेद है आपकी रचना पत्रिका के लायक नहीं है

और साहित्यिक दृष्टिकोण से फलदायक नहीं है ।

आपकी लेखनी है मौलिकता में बेहद कमजोर

क्योंकि हुकूमत के लिए ये आरामदायक नहीं है ।

न छंदोबद्ध है,न बहर में ,न अंतर्गत कोई विधा

हाँ अवाम के जद्दोजहद की सच्ची परिचयाक है

आपकी रचनाओं में शालीनता की बहुत कमी है

और रचनाओं में भी कोई कृत्रिम नायक नहीं है ।

श्री मान अजय जी वापस की गई रचना आपकी

अनयत्र न भेजें,कहीं भी छपने के लायक नहीं है

-अजय प्रसाद

(8)
आईये आप को दिखाता हूँ मैं बाढ़ का नज़ारा

कैसे जलमग्न हुआ है घर,गावँ,गलियाँ चौबारा ।

वो जो जरा सा मुंडेर दिखाई देता है न पानी में

बस वही तो हुजूर डूबा हुआ है घरवार हमारा ।

आप न करें तकलीफ उतर कर यहाँ देखने की

प्रशासन ने तो किया ही होगा बन्दोबस्त सारा ।

हेलीकाप्टर,मोटरबोट अधिकारी और चपरासी

सब बताएँगे कि कैसे मुश्किलों से है हमें उबारा ।

आप बस राहत की राशि का एलान कर दिजीये

फ़िर देखें कितना जल्द होगा बाढ़ से निपटारा ।

राशि मिलते ही बंदरबाट हो जाएगी आपस में

हमारे इलाकों से बाढ़ का पानी निकलेगा सारा ।

यही परम्परा है जो इमानदारी से निभाई जाती है

पीड़ितों को मिलता है राशन हो जाता है गुजारा ।

तुम भी न अजय हो एक अव्वल दर्जे के बेवकूफ

जहाँ जाते हो खोल देते हो अपने मुहँ का पिटारा ।

-अजय प्रसाद
(9)

शायरों। की महबूबा है गज़ल

आशिकों की दिलरुबा है गज़ल ।

अब क्या कहें कि क्या है गज़ल

बेजुबां शायरी की सदा है गज़ल ।

मीर,मोमिन,दाग,गालिब ही नहीं

कैफ़ि,दुष्यंत की दुआ है गज़ल ।

हुस्न की तारीफ,इश्क़ की नेमत

रकीबों के लिए बददुआ है गज़ल ।

बेबसों की बुलंद आवाज़ ही नहीं

इन्क़लाब की भी अदा है गज़ल ।

उर्दू की शान,अदब के लिए जान

मुशायरों के लिए शमा है गज़ल ।

हर दौर में निखर रही मुस्ल्सल

हर दौर की सच्ची सदा है गज़ल ।

औकात नहीं अजय तेरी, तू कहे

तेरे लिए तो इक बला है गज़ल ।

-अजय प्रसाद
(10)

गजलों को मेरी तू तहजीब न सीखा

मतला, मकता, काफ़िया, रदीफ न सीखा ।

कितनी बार गिराया है मात्रा बहर के वास्ते

कैसे लिखते हैं दीवान ये अदीब,न सीखा ।

देख ले शायरी में हाल क्या है शायरों का

किस तरह रह जाते हैं गरीब न सीखा ।

महफ़िलें, मुशायरें, रिसाले मुबारक हो तुझे

मशहूर होने की कोई तरक़ीब न सीखा ।

गुजर जाऊँगा गुमनाम, तेरा क्या जाता है

शायरी मेरी है कितनी बद्तमीज़ न सीखा ।

हक़ीक़त भी हक़दार है सुखनवरी में अब

ज़िक्रे हुस्नोईशक़, आशिको रकीब न सीखा ।

मेरी आज़ाद गज़लों पे तंज करने वालों

मुझे कैसे करनी खुद पे ,तन्कीद न सीखा ।

पढ़तें है लोग मगर देते अहमियत नहीं

अजय यहाँ है कितना बदनसीब न सीखा

-अजय प्रसाद

(11)

ऐसा नहीं कि गज़ल में सिर्फ़ बहर ज़रूरी है

खुद को बयां करने का भी हुनर ज़रूरी है

रन्ज़ोगम और इश्क़े सितम ही नहीं काफी

होना दिल पर दुनिया का कहर ज़रूरी है।

बारीकी से बर्दाशत करना है हालात को

और जमाने पे बेहद पैनी नज़र ज़रूरी है ।

अदीबों की इज्जत ,रिसालों से मोहब्बत

उम्दा शायरों के शेरों का असर ज़रूरी है ।

नकल नही ,इल्म के वास्ते पढ़ना ज़रूर

मीर,मोमिन गालिब,दाग ओ जफर ज़रूरी है ।

ज़िक्रे हुस्नो इश्क़,आशिक़ो वेबफ़ा ही नहीं

कैफ़ी और दुष्यन्त के साथ सफ़र ज़रूरी है ।

गज़लों में गर तुझे कहनी है बात सच्चाई से

पहले अजय होना इक सच्चा बशर ज़रूरी है

-अजय प्रसाद (बहर =छ्न्द बद्ध होना)

(12)

अपनी शर्तों पे जिया हूँ और कुछ नहीं

खुदा का नेक बंदा हूँ और कुछ नहीं ।

जिंदगी भर बस मुसलसल जद्दोजहद

आंधियों में एक दिया हूँ और कुछ नहीं ।

वक्त करता है रोज़ इस्तेमाल मेरा यारों

लम्हा-लम्हा मर रहा हूँ और कुछ नहीं ।

दिन गुजर जाता है सीखने-सिखाने में

रात सपनों को पढ़ा हूँ और कुछ नहीं ।

मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है

खुद से ही मैं खफा हूँ और कुछ नहीं ।

ढल रही है उम्र अजय अपनों के साथ

गैरों के दिल की दुआ हूँ और कुछ नहीं ।

-अजय प्रसाद

मुसल्सल =continuous

जद्दो-जहद =struggle

(13)

जिम्मेदारियों के साथ , मै कहता हूँ गज़ल

हद से बाहर होती है बात मै कहता हूँ गज़ल ।

हसरतों,ख्वाहिंशो,जरूरतों से जाता खिलाफ़

कर वक़्त से दो-दो हाथ ,मै कहता हूँ गज़ल ।

दिन जिंदगी के जंजालों से,शाम चाहनेवालों से

उलझती है जब मुझसे रात ,मै कहता हूँ गज़ल ।

थकन,घुटन,चुभन,क्या-क्या सहता है ये बदन

फिर जब लड़ती है हयात , मै कहता हूँ गज़ल ।

उदास मन,बेचैन धुन,है जिन्दगी जैसे अपशगुन

ताने देते है जब मेरे हालात,मै कहता हूँ गज़ल ।

झुलस गई जिन्दादिली जद्दो-जहद की आग में

लगते है जलने जब जज्बात ,मै कहता हूँ गज़ल ।

-अजय प्रसाद

देखिए जिसे वो गज़ल लिख रहा है

आए न आए मुसलसल लिख रहा है।

मै,तुम,ये ,वो ,सब के सब ,हर बात पे

हर हालात पे आजकल लिख रहा है ।

कोई बहर में है लिखता,कोई बे-बहर

कोई खुद से,कोई नकल लिख रहा है ।

कोई कहे, मुहब्बत को ज़रखेज ज़मीं

कोई खुबसूरत दलदल लिख रहा है ।

किसी को लगतीं हैं वो आँखें झील सी

कोई उनके चेह्रे को कंवल लिख रहा है ।

कोई खुश है किसी की यादों के साथ

कोई मिलने के लिए बेकल लिख रहा है ।

कोई बेवफ़ा,संगदील,हरजाई,सितमगर

कोई उन्हें ज़िंदा ताजमहल लिख रहा है ।

लोग मसगूल हैं मुस्तकबिल बनाने में

वक्त चेह्रे पे हिसाब हरपल लिख रहा है ।

तू क्यों परेशां हैं खुद से अजय अब तक

क्या तू खामोशी को हलचल लिख रहा है

-अजय प्रसाद

प्यार करना तू अपनी औकात देख कर

हैसियत ही नहीं बल्कि जात देख कर ।

दिल और दिमाग दोंनो तू रखना दुरुस्त

इश्क़ फरमाना घर के हालात देख कर ।

होशो हवास न खोना आशिक़ी में यारों

ज़िंदगी ज़ुल्म ढाती है ज़ज्बात देख कर ।

करना तारीफे हुस्न मगर कायदे के साथ

खलती है खूबसूरती मुश्किलात देख कर ।

क्या तू भी अजय, किसको समझा रहा

डरते कहाँ हैं ये लोग हादसात देख कर

-अजय प्रसाद

वक्त कि मार से तुम बच पाओगे क्या

जो अब तक नहीं हुआ ,कर पाओगे क्या

हो इतने मुतमईन कैसे अपनी वफ़ात पे

जिम्मेदारीयों से यूँही निकल जाओगे क्या

वादा किया था साथ निभाने का उम्रभर

तो मुझको आजमाने फिर आओगे क्या

माना कि हक़ीक़त मे ये मुमकिन ही नहीं हैं

मगर ख्वाबों मे आने से मुकर जाओगे क्या

तुम भी किस बात पे अड़ के बैठे हो अजय

उसने ने कह दिया नही तो मर जाओगे क्या

-अजय प्रसाद

मुतमईन =satisfied मुमकिन =possible

वफ़ात =death मुकर =disobey

आते हैं चैनलों पर क्या क्या इश्तेहार देखिए

पहुँच गया है अब तो घर-घर बाज़ार देखिए ।

साबुन,शैम्पू और कॉस्मेटिक्स के साथ-साथ

बिकतें हैं आजकल पर्व और त्यौहार देखिए ।

सिंगिंग, डांसिंग, कुकिंग और डेयरींग कॉन्टेस्ट

उसपर संडे ब्लॉकबस्टर से सजा इतवार देखिए ।

वीकएंड पे पार्टी जैसे शामें जुहू और चौपाटी

मस्ती मे चूर अब मध्यम वर्गीय परिवार देखिए

मत कहिये दोस्तों कि कुछ भी करतें नहीं हैं वो

हरकत में आ गयी है चुनावों में सरकार देखिए

-अजय प्रसाद

पाती प्रेम भरी कोई लिखी ही नहीं

मुझे मेरे जैसी कोई मिली ही नहीं ।

इज़हार न इकरार,न किसी से प्यार

मेरी किस्मत में है आशिक़ी ही नहीं ।

फूलों की चाह में काँटे ही मिले यारों

मेरे तक़दीर में खुशकिस्मती ही नहीं ।

खुदा जाने क्या हुई है खता मुझसे

करता मुझ से कोई दोस्ती ही नहीं ।

खुश रहे खुदा मुझे नहीं कोई शिकवा

तेरे आगे किसी की भी चलती ही नहीं ।

-अजय प्रसाद

ईंट का जवाब पत्थर हो ज़रूरी नहीं

मौत ज़िंदगी से बेहतर हो ज़रूरी नहीं ।

हाँ जी लेते हैं कुछ लोग गफलत में

हर किसी को मयस्सर हो ज़रूरी नहीं ।

खुदकुशि कर लेतीं हैं खुशियाँ खुशी से

मौत हमेशा मंजिल पर हो ज़रुरी नहीं ।

मुरझा जातीं हैं मायूसी भी हाल देख के

ज़ाहिर हर बार चेहरे पर हो ज़रूरी नहीं ।

हारना भी जीत का ही आगाज़ है अजय

जीतना तुम्हारा मुक़्द्दर हो ज़रूरी नहीं

-अजय प्रसाद

इससे पहले कि दोनो बदल जाएं

आओ वक्त रहते हम संभल जाएं ।

कोई वादा न करें, न कसम खाएं

छुड़ा के हाथ हम दूर निकल जाएं ।

न कोई गिले शिकवे,न करें मलाल

लफ्ज़-ए-मजबूरियाँ निगल जाएं ।

बिना किसी पे दिये कोई इलज़ाम

दिल से एक दूजे के निकल जाएं ।

बड़ा शौक था न ईश्क़ फरमाने का

अब कहो अजय हम फ़िसल जाएं ।

-अजय प्रसाद

आसान नहीं है आजकल बच्चों को बड़ा करना

पढ़ा लिखा कर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना ।

तकनीक ने कर दी है तबाह मासूमियत उनकी

नहीं भाता है उन्हें आपस में प्यार से लड़ा करना ।

नज़रंदाज़ करतें हैं बुजुर्गो के नसीहतों को बेखौफ़

बुरा मानते हैं अब उस्तादों का,तमाचे,जड़ा करना ।

खुदगर्ज ख्वाहिशों के तले दफ़न है बचपन कहीं

वो छोटी-छोटी चीजों के लिए ज़िद पे अड़ा करना ।

जाने अजय कब होगा खत्म चलन ये ज़माने का

देख कर तरक्की औरों की नज़रों में गड़ा करना

-अजय प्रसाद

पलायन इन्सानों का नहीं इंसानियत की है

जंग लगी रहनुमाई और सड़े सियासत की है ।

अब तो बात हद से भी है आगे निकल चुकी

अब कहाँ यारों काबू में सब ज़्म्हुरियत की है ।

दोषारोपण के खेल में हैं माहिरों की जमातें

किसको कितनी चिंता यहाँ आदमियत की है ।

क्या बताएं कितनी तंगहालि में लोग जी रहे

किस कदर किल्लत आज नेक नियत की है ।

बेकार में अजय तू भी क्या बकवास है करता

खुदगर्जी में लिपटी लाश ये मासूमियत की है

-अजय प्रसाद

हमसे हमारे ख्वाब न छीन

काँटों भरी गुलाब न छीन ।

जिंदा तो हूँ गफलत में सही

यादों की ये सैलाब न छीन ।

बेहद सुकून से रहते हैं यहाँ

सुखे फूलों से किताब न छीन ।

कुछ तो रहम कर मेरे खुदा

मेरे हिस्से की अज़ाब न छीन ।

कहने दे मुझे नाकाम आशिक़

रकीबों से मेरा खिताब न छीन ।

हक़ है उन्हें भी बात रखने का

मजलूमों से इंकलाब न छीन ।

नये दौर मे तरक्की है जाएज़

मगर बच्चों से आदाब न छीन ।

जिंदा रख अजय अपने को

खुद से दिले बेताब न छीन

– अजय प्रसाद

चार दिन चांदनी फिर वही रात है

आजकल इश्क़ में ऐसा ही हाल है ।

पानी के बुलबुले जैसी है आशिकी

अब न मजनू है कोई ,न फरहाद है ।

हुस्न में भी वो तासीर अब है कहाँ

वो न लैला न शीरी की हमजाद है ।

जिस्मों में सिमट कर वफ़ा रह गयी

खोखलेपन से लबरेज़ ज़ज्बात है ।

माशुका में न वो नाज़ुकी ही रही

आशिकों में कहाँ यार वो बात है

इश्क़ में इस कदर है चलन आजकल

रोज जैसे बदलते वो पोशाक है

मतलबी इश्क़ है मतलबी आशिकी

प्यार तो अब अजय सिर्फ़ उपहास है ।

-अजय प्रसाद

जाने वो लम्हा कब आएगा

जब कुआँ प्यासे तक जाएगा ।

झाँकना अपने अन्दर भी तू

खोखला खुद को ही पाएगा ।

कब्र को है यकीं जाने क्यों

लाश खुद ही चला आएगा ।

थूका जो आसमा पे कभी

तेरे चेह्रे पे ही आएगा ।

इश्क़ में लाख कर ले वफ़ा

बेवफ़ा फ़िर भी कह लाएगा ।

वक्त के साथ ही ज़ख्म भी

देखना तेरा भर जाएगा

रख अजय तू खुदा से उम्मीद

वो रहम तुझ पे भी खाएगा ।

-अजय प्रसाद

कत्ल कर के मेरा, कातिल रो पड़ा

कर सका कुछ जब न हासिल,रो पड़ा ।

खुश समन्दर था मुझे भी डूबो कर

अपनी लाचारी पे साहिल रो पड़ा ।

आया तो था वो दिखाने धूर्तता

सादगी पे मेरी कामिल रो पड़ा।

जो बने फिरते हैं खुद में औलिया

हरकतों पर उन की जाहिल रो पड़ा ।

की मदद मज़दूर ने मजदूर की

अपनी खुदगर्जी पे काबिल रो पड़ा ।

जा रही थी अर्थी मेरे प्यार की

हो के मैयत में मैं शामिल, रो पड़ा ।

बिक गया फ़िर न्याय पैसों के लिए

बेबसी पे अपनी आदिल रो पड़ा

-अजय प्रसाद

रोज़ पढ़ता हूँ तुझे मैं अखबार की तरह

सुनता हूँ तेरी हर बात समाचार की तरह ।

तू मुझे देखे या न देखे ये तेरी मरज़ी है

देखता हूँ मैं तुझे आखरी बार की तरह ।

कितनी आसानी से मुकर जाते हैं लोग

भूल जाते हैं वायदे नयी सरकार की तरह ।

ज़माना तरस रहा है देखने को वो ज़माना

जब रहते थे सब मिलकर परिवार की तरह ।

पड़ने लगें हैं दौरे तुम पे अजय पागलपन के

आज कल लिख रहे हो इमानदार की तरह ।

-अजय प्रसाद

रौशनी भी तो अन्धेरे की मोहताज है

जैसे कल के पहलू में होता आज है ।

गैरतमंद हो गए हैं मुलाजिम मामूली

और बेगैरत यहाँ करते अब राज है

पनप रहा प्यार जिस्मों में पंगु हो कर

न कोई शाहज़हां न कोई मुमताज है

चहकती नहीं चिड़ियाँ अब तो मुंडेर पे

ये खामोशी यारो खतरे की आवाज़ है

ज़ख्म देकर ज़माना है बड़ा मुस्कुराता

खत्म अब मरहम लगाने का रिवाज है

तोड़ कर रस्मो को चलते हैं जो यहाँ

ठुकराता उसको पहले सभ्य समाज है

-अजय प्रसाद

पज़िराई=welcome इज़ाफा=increase

बड़ी बेरुखी से वो मेरी पज़िराई करता है

जैसे कि बकरे को हलाल कसाई करता है ।

भूल जाता हूँ मैं उसके हर वार को दिल से

जब भी मुस्करा कर मेरी कुटाई करता है ।

अज़ीब दस्तूर है इश्क़ में आजकल दोस्तों

सोंच समझकर आशिक़ बेवफाई करता है ।

हो जाता है इज़ाफा उसके चाहनेवालों में

जब कभी भी कोई उसकी बुराई करता है ।

बड़े आराम से रहते हैं मसले मेरे मुल्क के

क्योंकि यहाँ शासन ही अगुआई करता है ।

-अजय प्रसाद

कह दूँ

भरी दुपहरी को चांदनी रात कह दूँ

कदमों में तेरे मैं पूरी कायनात रख दूँ ।

फ़िर मत कहना कि मैंने बताया नहीं

तू कहे तो घर के सारे हालात रख दूँ ।

छुप कर इज़हारे इश्क़ मुझे मंजूर नहीं

भरी महफिल में दिल की बात रख दूँ ।

जरा सोंच ले मुझे आजमाने से पहले

कहीं तेरे आगे न तेरी औकात रख दूँ ।

गर हो जाये जानेमन तुझे रिश्ता कबूल

तो घर पे तेरे मैं अपनी बारात रख दूँ ।

-अजय प्रसाद

रह कर खामोश खुद को सज़ा देता हूँ

बेहद गुस्से में तो बस मुस्कुरा देता हूँ ।

सब नाराज़ हो कर क्यों जुदा है मुझसे

कहते हैं लोग मै आईना दिखा देता हूँ ।

क्यूँ रह गया महरूम उनके नफरत से भी

अक़्सर ये सोंच कर आँसू बहा देता हूँ ।

फूलों की अब नही है चाह मुझको यारों

काँटों से भी अब रिश्ते मै निभा देता हूँ ।

मिल जाए आसरा भी ज़रा रातों को

अक़्सर शाम ढलते ही दीया बुझा देता हूँ

-अजय प्रसाद

कोशिशें मेरी रंग लायेगी ज़रूर

सफ़र में हूँ मंजिल आयेगी ज़रूर ।

लाज़्मी है लगना ठोकर रास्तों पर

ज़िंदगी मेरी संभल जायेगी ज़रूर ।

लगेगा वक्त लोगों को अपनाने में

दावते सुखन कभी आयेगी ज़रूर ।

भले हो बाद मेरे मरने के शायद

गजलें मेरी वो गुनगुनायेगी ज़रूर ।

आज खुश है मुझे देख कर परेशां

नाकामीयां मेरी पछतायेगी ज़रूर ।

-अजय प्रसाद

जिंदगी यूँ ही जज्बात से नहीं चलती

फक़त उम्दे खयालात से नहीं चलती ।

रुखसत होता हूँ रोज घर से रोज़ी को

गृहस्थी चंदे या खैरात से नहीं चलती ।

मुसलसल जंग है जरूरी जरूरतों से

हसीं ख्वाबो एह्ससात से नहीं चलती ।

रज़ामंदी रूह की लाज़मी है मुहब्बत में

बस जिस्मों के मुलाकात से नहीं चलती ।

कब्र की अहमियत भी समझो गाफिलों

दुनिया सिर्फ़ आबे हयात से नहीं चलती ।

-अजय प्रसाद

जल रहा है वतन ,आप गज़ल कह रहे हैं

सदमे में है ज़ेहन ,आप गज़ल कह रहे हैं ।

कुछ तो शर्म करें अपनी बेबसी पे आप

जख्मी है बदन ,आप गज़ल कह रहे हैं ।

जले घर , लूटी दुकानें, गई कितनी जानें

उजड़ गया चमन,आप गज़ल कह रहे हैं ।

कर ली खुलूस ने खुदकुशि खामोशी से

सहम गया अमन ,आप गज़ल कह रहे हैं ।

खौफज़दा चीखों में लाचारगी के दर्दोगम,

है दिल में दफ़न ,आप गज़ल कह रहे हैं ।

दोस्ती,भाईचारा,और भरोसे की लाशों ने

ओढ़ लिया कफ़न ,आप गज़ल कह रहे हैं ।

रास्ते,गलियाँ,घर बाज़ार सब वही है मगर

है कहाँ अपनापन आप गज़ल कह रहे हैं ।

क्या कहें अजय हालत मंदिरो,मस्जिदों की

सब हैं आज रेहन आप गज़ल कह रहे हैं

-अजय प्रसाद ( रेहन =बंधक )

इस कदर हम से खफ़ा है वो

जिंदा रहने की देता दुआ है वो ।

ख्व़ाब कोई न पनप जाए कहीं

हैसियत मेरी बता देता है वो ।

डरता रहता हूँ तन्हा होने से मैं

अपनी यादों में बुला लेता है वो ।

नामुमकिन है बचना यारों उससे

खूबसूरत हसीन इक बला है वो ।

फूल,तितली, खुशबू,या है तारा

अब क्या कहें अजय क्या है वो ।

-अजय प्रसाद

फ़ले फुले अमीर और गरीबों का भी गुजारा हो

डूबते हुए को कम से कम,तिनके का सहारा हो ।

हर तरफ चैन-ओ-अमन और महफ़ूज हो वतन

या खुदा अपने मुल्क मे एसा भी तो नजारा हो ।

ज़ुल्म मिटें,इल्म बढ़े,और हो हरकोई खुशहाल

मिल-जुलकर सब रहें यहाँ,दिल में भाईचारा हो ।

रोटी,कपड़ा और मकान,हो न्याय में सब समान

न कोई गरीब, न कोई बेबस, न कोई बेचारा हो ।

चाहे हो कोई दिन ,वार,पर्व या कोई भी त्योहार

रौशन हर मंदिर ,मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारा हो ।

-अजय प्रसाद

जल गया रावण अहंकार रह गया

फ़िर एक बार राम लाचार रह गया ।

मोह, माया ,क्रोध,वासना और लालच

जिंदा आदमी में सब विकार रह गया ।

आचरण में इंसानियत और सच्चाई

बन के फ़कत आज विचार रह गया ।

शैतान शर्मिन्दा है हरकतों पे हमारी

हो के सादगी का वो शिकार रह गया ।

फ़िर न होश में आ सका ये ज़माना

मानसिक रूप से जो विमार रह गया ।

कोई काम न आई तेरी सब कोशिशें

अजय तू आज तक बेकार रह गया ।

-अजय प्रसाद

भगवान तू है मौजूद, मुझे इसपे शक़ नहीं

मगर हुआ मेरे दिल को यकीं अबतक नहीं

पूजा,नमाज़,हज़ और तीर्थ गर है सच्चा

फिर सीखते हैं लोग भला क्यूँ सबक नही

रामयण,महाभारत,कुरान, बाईबिलौ गीता

पढ़ के गर हैं लड़तें ,तो क्या अहमक नही

जी रहें इस दौर में हम बगैर ज़िंदादिली के

जायका-ए-जिंदगी मे जैसे है नमक नही ।

हर चीज़ अपनी जगह लगती है अधूरी सी

महफिलों मे भी अब रह गई वो रौनक नही ।

-अजय प्रसाद

करके गंगा स्नान अपने पाप धो रहें हैं

सोंचते हैं गुनाह उनके माफ़ हो रहें हैं ।

पूजा-पाठ,दान और ध्यान,धरम ,करम

सारे दिखावे आजकल साथ हो रहें हैं ।

चुस कर खून गरीबों का बने हैं अमीर

वही लोग अब गरीबी का रोना रो रहें हैं ।

सियासत पे सितम जो वर्षो ढोते रहे थे

आज दिलों में नफरत के बीज बो रहें हैं ।

बदनसीबी हमारी अब क्या कहें अजय

लाश अपने अरमानों का आप ढो रहे हैं ।

– अजय प्रसाद

दिल में कोई उम्मीद पनपने नहीं देते

जिम्मेदारियां मेरी मुझे बहकने नहीं देते ।

बस भटकना ही मेरी तक़दीर है शायद

रास्ते मुझे मंजिल तक पहुंचने नहीं देते ।

कुरेद ही देते हैं अक़्सर सूखने से पहले

कुछ लोग मेरे ज़ख्मों को भरने नहीं देते ।

चाहता तो हूँ मैं साथ जमाने के चलना

मगर ईमानदारी से मुझे चलने नहीं देते ।

गरीबी में ज़िन्दगी गुजारना शौक नहीं है

हालात मेरी हैसियत ही बदलने नहीं देते

-अजय प्रसाद

सज़दे मे नहीं गये तो कभी शिकायत नहीं की

यूँ हीं बेदिली से हम ने कभी इबादत नहीं की ।

कर खुद को दिया खामोशी से हवाले जहां के

रिश्तों की हुकूमत से कभी बगावत नही की ।

हर शख्स ने दिया दगा है मुझे दोस्त बनकर

मगर मैने तो इंसानियत से खिलाफत नही की

जिंदगी ने तो जमकर इस्तेमाल किया है मेरा

और मौत ने मुझपर कभी इनायत नहीं की ।

फिर कहीं मुझसे नाराज़ न हो मेरी तन्हाइयां

यादों की इसलिए मैने कभी हिफाजत नही की ।

-अजय प्रसाद

आशिक़ी मेरी सबसे जुदा रही

ज़िंदगी भर वो मुझसे खफ़ा रही ।

देखता मैं रहा प्यार से उन्हे

बेरुखी उनकी मुझ पर फिदा रही ।

ये अलग बात है उनके हम नहीं

वो हमेशा मगर दिलरुबा रही ।

रात भी, ख्व़ाब भी ,नींद भी मेरी

फ़िक्र तो उनके बश में सदा रही ।

जोड़ना दिल मेरी कोशिशों में थी

तोड़ना दिल तो उनकी अदा रही ।

वक्त के साथ वो भी बदल गए

वास्ते दिल में जिनके वफ़ा रही ।

क्या करें अब, अजय तू ज़रा बता

मेरी किस्मत ही मुझसे खफ़ा रही ।

-अजय प्रसाद

खुद से ही आज खुद लड़ रहा आदमी

अपनी ही जात से डर रहा आदमी

दौड़ते भागते सोते औ जागते

सपनो के ढेर पर सड़ रहा आदमी ।

इस कदर मतलबी बन गया आज वो

खुद के ही नज़रो में गड़ रहा आदमी ।

रात दिन छ्ल रहा अपने ही आपको

अपनो के पीछे ही पड़ रहा आदमी ।

अब अजय इस जमाने की क्या बात हो

आदमी से जहाँ जल रहा आदमी

-अजय प्रसाद

नया साल मुबारक हो!!!

नये साल के जश्न में डूबी रात मुबारक हो

वही मुल्क और वही हालात मुबारक हो ।

वही सुबह, वही शाम, वही नाम ,वही काम

वही उम्मीदों की झूठी सौगात मुबारक हो ।

वही मिलना, बिछड़ना,रूठना और मनाना

ज़िंदगी से फिर वही मुलाकात मुबारक हो ।

तकनीकी तरक़्क़ी और खोखली रंगरलिया

दम तोड़ती तहजीब की वफ़ात मुबारक हो ।

बेलगाम नयी पीढ़ी, लिए खुदगर्ज़ी की सीढ़ी

रिश्तों ,रिवाजों से दिलाते नीज़ात मुबारक हो ।

लूट,मार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार और ब्लात्कार

अन्धा कानून और बेजा हवालात मुबारक हो ।

आत्महत्या करते किसान,बेरोजगार नौजवान

आतंकित समसामयिक सवालात मुबारक हो ।

शोर शराबा ,अश्लील पहनावा और नंगा नाच

गालियों से भरे बेसुरे भद्दे नगमात मुबारक हो ।

मुद्दों से भटके चैनलों पे चर्चे,बेशर्म नुमाइंदों के

करते टीवी पे बद ज़ुवानी फंसादात मुबारक हो

हर बार की तरह ,हर साल की तरह हम सब को

अजय,उम्मीद पे कायम ये कायनात मुबारक हो ।

-अजय प्रसाद

वक्त के साथ जो चल नहीं पाते

हैसियत अपनी बदल नहीं पाते ।

जो फिसल गये यारों जवानी में

उम्र भर फिर वो संभल नहीं पाते ।

लाख करें हम कोशिश बचने की

मौत के डर से, निकल नहीं पाते ।

सड़ जातें हैं तालाब की मानींद

हद से कभी जो निकल नहीं पाते ।

हासिल उन्हें होती है कामयाबी

इरादे जिनके कभी टल नहीं पाते

-अजय प्रसाद

गिर चुका है मेरी नजरों से वो ज़माने का क्या

गुजर गया है वक्त मगर उस फसाने का क्या ।

चलो ठीक है आज वो मुतमईन हैं हालात से

कल मझधार में छोड़कर आए बहाने का क्या ।

खुदा ने दी है कुव्वत सोचने समझने,परखने की

जानबूझकर ही जो सोए हैं उन्हें जगाने का क्या ।

आकर मैयत पे हुई है आँखें जो उनकी आज नम

रूठ जब मैं ज़िंदगी से ही गया तो मनाने का क्या

अब तो दर्द भी दुआएं ज़्ख्मों को देने लगें हैं दोस्तों

ज़रा सोंचियें फ़ायदा होगा भी अब सताने का क्या ।

औकात तेरी अजय तू जान ले दो कौड़ी भी नहीं है

भला फ़िर करेगा तू कोशिश नाम कमाने का क्या ।

-अजय प्रसाद

(आज़ाद गज़ल)

कर चुके ज़लील,अब ज़र्रानवाज़ी होनी चाहिए

शराफत में नज़ाकत भी शैतानी होनी चाहिए

फ़कत अवाम के वोट से कुछ नहीं होता अब

सत्ता के लिए कुछ तिकड़मवाज़ी होनी चाहिए ।

नये दौर में नये तरीकों की सियासत लाज़मी है

जम्हुरीयत के नाम पर जुम्लेबाजी होनी चाहिए ।

पूछे कोई सवाल और न कहीं करे कोई बवाल

जहाँ करें सब गुलामी,वो आज़ादी होनी चाहिए ।

हड़तालें,तोड़फोड़,और आगजनी में मददगार

लोगों को भड़काने को नारेबाजी होनी चाहिए ।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना इनका मक़सद नहीं

चाहते हैं हिंसा और पत्थर बाजी होनी चाहिए ।

गरीबों की गरीबी और अमीरों की अमीरी में

रहनुमाओं की भरपूर हिस्सेदारी होनी चाहिए ।

हर बात पे कोसना सरकार को भी ठिक नहीं

यारों अपनी भी कुछ जिम्मेदारी होनी चाहिए ।

-अजय प्रसाद

वक्त और हालात बिक रहे हैं

जिस्म और ज़ज्बात बिक रहे हैं ।

इस खुदगर्ज दुनिया मे दोस्तों

रिश्ते और औकात बिक रहे हैं ।

बिक रही लैला, बिक रहे मजनूँ

जुदाई और मुलाकात बिक रहे हैं ।

बिक रही ज़र,ज़ोरू,ज़मीं वर्षों से

मज़हब और जात बिक रहे हैं ।

रास्ते बिक रहे हैं मंजिलें बिक रही

सफ़र और सौगात बिक रहे हैं ।

-अजय प्रसाद

मै तो गया गुजरा ठहरा ,तू बता

हाशिये पे हरदम ही रहा,तू बता ।

थी हैसीयत नही की बात रखता

उपर से हुजूर भी खफा, तू बता ।

न दवा,न दुआ,न कोई उम्मीद की

हस्र मुझे था पहले पता, तू बता ।

अपने लिए तो मय्य्सर ही न हूई

चाहत दोस्ती और वफा, तू बता ।

तारीफ़ न सही तनक़ीद तो कर

आखिर हूँ मैं सबसे जुदा, तू बता

मौत मुस्कुराती है हालात पे मेरी

ज़िन्दगी बन गई है सज़ा, तू बता ।

न रहम, न करम वक्त भी बेरहम

फेर लिया है मुहँ भी खुदा,तू बता ।

छ्पना,पढ़ना,रद्दी के भाव बिकना

आखिर तो होना है फना तू बता ।

तेरी हस्ती से मुझे कोई गुरेज़ नहीं

फ़िर अजय से क्यों चिढ़ा,तू बता ।

-अजय प्रसाद

आईये फहराएं तिरंगा जश्न-ए-आजादी है

हालात से मत हो अचंभा जश्न-ए-आजादी है

बेरोजगारी,भ्रष्टाचारी,बलात्कारी के साथ ही

रहे कौम में भूखा नंगा जश्न-ए-आजादी है।

हिंसक भीड़ के हाथों होते संहार इंसानों का

मज़हब के नाम फ़ले दंगा जश्न-ए-आजादी है ।

तकनिकी दौर में तरक्की करती नई पीढियाँ

खुदगर्ज़ सोंच,बाल बेढंगा जश्न-ए-आजादी है ।

जाने भी दे अब इतनी बेरुखी भी नहीं अच्छी

मत ले अजय आज पंगा जश्न-ए-आजादी है ।

-अजय प्रसाद

हमसे हमारे सरकार खफ़ा हैं

जाने क्यों बरखुरदार खफ़ा हैं ।

चिढ़े-चिढ़े रहते हैं वो आजकल

क्या कहें कब से यार खफ़ा हैं ।

शक उन्हें है हमारी वफाओं पे

शिकवे-गिले भी हज़ार खफ़ा हैं ।

लाख जतन कर के हार गए हम

दिल में दर्दोगम के गुबार खफ़ा हैं ।

जाँ दे कर अजय उन्हें मनाऊँगा

शायद इल्म हो के बेकार खफ़ा हैं ।

-अजय प्रसाद

खिसक रही है ज़मीं पाँव तले से

और खौफ ज़रा नहीं जलजले से ।

अजीब दौर है आ गया अब दोस्तों

खुदगर्जी फैल रही अच्छे भले से ।

न किसी को मतलब है किसी से

न कोई लगाता है किसी को गले से ।

वो तो नफरत से ही देगा हर जवाब

पूछ रहे हो हाल गर दिल जले से ।

तू भी अजय किसे समझा रहा है

बात उतरेगी ही नहीं इनके गले से ।

-अजय प्रसाद

आशिक़ी मेरी दोस्तों अधूरी रही

ख्वाबों में भी उनसे मेरी दूरी रही ।

बेवफा क्यों उसे कहें हम भला

कुछ तो अपनी ही मज़बूरी रही ।

न इज़हार,न करार, न कोई तकरार

जुदाई में हमारी रब की मंजूरी रही ।

न सजदे में गए और न शिकवे किए

मुहब्बत में खामोशी जो ज़रुरी रही ।

कामयाबियों ने चूमे कदम उनके हैं

आदतों में जिनकी जी हुजूरी रही ।

-अजय प्रसाद

दिमागी दिवालियेपन की हद है

ख्वाबों में जीने की जो आदत है ।

इमानदारी से मेहनत के बगैर ही

चाह बेशुमार दौलत की बेहद है ।

हश्र पता है सबको अपना मगर

अपनी नज़रों में सब सिकंदर है ।

नंगापन,ओछापन, बदजुबानी ही

शोहरत के लिए अब ज़रूरत है ।

रखकर तहजीबों को ताख पर

करते बुजुर्गो से रोज बगावत है ।

क्या करेगा अजय तू चीख कर

सुनता कौन तेरी यहाँ नसीहत है ।

-अजय प्रसाद

हादसों के बीच पला हूँ

खुद के लिए ही बला हूँ

नूर यूँ ही नहीं है चेह्रे पे

हँस कर गमों को छला हूँ

मन्नतें कभी पूरी हूई नहीं

दुआओं को भी खला हूँ ।

छाछ हूँ फूँक कर पीता

यारों मैं दुध का जला हूँ ।

मंज़िल कि है तलाश मुझे

अकेले ही सफर पे चला हूँ ।

हाँ,इक बुरी लत है मुझमें

चाहता सबका मैं भला हूँ ।

-अजय प्रसाद

जहाँ कद्र न हो आपकी जाया न करें

हालात पे किसी के मुसकुराया न करें ।

पता नही कौन,कहाँ,कैसे काम आए

हर किसी को दर से ठुकराया न करें ।

नये दौर मे नये सलीके से पेश आये

वेबज़ह अपनी नसीहत ज़ाया न करें ।

जो है हक़ीक़त उसे कर लें हम कबूल

झूठी आश से खुद को भरमाया न करें ।

बेशकीमती हैं वोट आपके ज़रा समझें

जात-पात के नाम पर यूँ लुटाया न करें ।

-अजय प्रसाद

तक़सीम हुआ था मुल्क मसाइलों के लिए क्या

आज़ादी हमने पाई इन काहिलों के लिए क्या ।

देते खोखले आश्वासन,बहाते हैं घड़ियाली आसूँ

जाँ गँवाई जवानों ने इन जाहिलों के लिए क्या

दफन है दफ्तरों में तरक्की अनगिनत गावों की

किए थे वायदे फक़त फाइलों के लिए क्या ।

-अजय प्रसाद

आँखों में है दो तस्वीरें मेरे वर्तमान भारत की

इक तरफ़ है नजरें,इनायत इक पे हिकारत की ।

भूख ,गरीबी ,झोपड़पट्टी बेबस ओ लाचारी है

दूजे तरफ़ है देखिये मॉल मस्ती व तिज़ारत की ।

लुटती अस्मत, पिटती जनता, और झूठे वादे है

ढाते जुल्म वही है जो खाते कसम हिफाजत की ।

लेकर कर्ज करोडों का ऐश करते हैं बिदेशों मे

जान गवांनी पड़ रही हैं जिन्होंने शराफ़त की ।

नाम बदलने से क्या नजरिया बदल जायेगा

इक हमाम मे सब नंगे हैं रहनुमा सियासत की।

-अजय प्रसाद

चलिए हम आज मॉल चलकर देखतें हैं

कुछ पलों को माहौल बदलकर देखतें हैं !

उम्र भर के लिए तो शायद नामुमकिन है

हाँ कुछ दूर आपके साथ टहलकर देखतें हैं ।

फूँक फूँक के कदम बहुत रक्खा है मैंने

सोंचता हूँ अब क्यूँ न फिसलकर देखते हैं ।

पहले तो मुहल्ले में सब मिलकर ही रहते थे

अब तो, थोड़ा रुक कर ,संभलकर देखतें हैं ।

भूल कर माज़ी की बातें,हाल को सँवारें हम

निकल चुका वो ,इससे भी निकलकर देखतें हैं ।

-अजय प्रसाद

चाहता जो हूँ अभी लिख पाया कहाँ

वो मिजाज, वो फलसफ़ा आया कहाँ

आप कहतें है, उम्दा है ,तो शायद होगा

मेरे मुताबिक मै अभी सोच पाया कहाँ

सोई है जनता कब से गफ़लत की नींद मे

उन्हे ठीक से अभी मै जगा पाया कहाँ

सिर्फ़ बदन नही ,जेहन तक जो हिला दे

वो तब्दीली के तलातुम ला पाया कहाँ

गज़लों मे तेरी ,अजय अभी बेहद कमी है

वो लहजा,वो पैनापन अभी आ पाया कहाँ

***

Storm =तलातुम ,

-अजय प्रसाद

भिखारी भी भीख देने वाले को दुआ देता है

और नेता वोट देने वालों को ही भूला देता है ।

जानता है बखूबी सियासत को जिंदा रखना

धर्म व जात के नाम पे लोगो को लड़ा देता है ।

मारे जाते है भूखमरी से न जाने कितने गरीब

सरकारी लापरवाही टनों अनाज सड़ा देता है ।

शक रिश्तों में कर देता है पैदा दरारें गहरी

खलीश जिगर में दुशमनी को हवा देता है ।

मत कर गरूर अजय अपनी बुलंदी पे अभी

वक्त शख़्स की शख्सियत तक मिटा देता है ।

-AJAY PRASAD

TGT ENGLISH DAV PS PGC

BIHARSHARIF,NALANDA,BIHAR

बच्चों को एक संयुक्त परिवार दे नहीं पाया

अच्छी परवरिश भी मैं यार दे नहीं पाया ।

मोबाइल,शिक्षा,ऐशो-आराम कपड़े तो दिये

मगर अफसोस अच्छे संस्कार दे नहीं पाया ।

व्हाट्सप,फेसबुक ,टिकटोक ,ट्विटर से परे

तकनीक से अलग रिशतेदार दे नहीं पाया ।

दादा दादी का प्यार,न नाना नानी का दुलार

अपनेपन से भरपुर इक त्योहार दे नहीं पाया ।

फास्टफूड आहार और है मशीनी सोंच विचार

पर ज़िंदादिल ज़्ज़्वाती व्यबहार दे नहीं पाया ।

ख्वाहिशें,फ़रमाइशें और ज़िद मान ली उनकी

मगर एक भी ज़ायज़ इन्कार दे नहीं पाया ।

-अजय प्रसाद

रौनक मेरी महफिलों की कोई और ले गया

वो शानो-शौकत,वो फिज़ा, वो दौर ले गया ।

ढलते ही उम्र वो चमक झुर्रियों में बदल गई

मेरे चेह्रे पे टिकती निगाहों का गौर ले गया ।

बागों में टहलना,बारिशों में भींगना, भींगाना

वो शाम,वो नदी का किनारा,वो ठौर ले गया ।

तक़नीक और तरक्की तो अमीरों को भा गई

गरीबों की तो रोज़ी,औ खाने का कौर ले गया ।

नाज़ जमाने के उठाते फिरते थे हम शौक़ से

जो कभी सजते थे सर पे वो सिरमौर ले गया

-अजय प्रसाद

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