आज़ाद गज़लें
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एक हसरत मेरी हाथ मलती रही
ज़िंदगी छाती पे मूँग दलती रही ।
मै सितम उनके चुपचाप सहता रहा
खामुशी भी उन्हें,मेरी खलती रही ।
उनकी महफिल में जो आज मौजूद था
रात भर ये शमा मुझ से जलती रही ।
होगी नज़रे इनायत वो मुझ पर कभी
दिल मे ख्वाहिश यही मेरी पलती रही
वक्त ने तो दगा है दिया हर दफ़ा
ज़िंदगी बेसबब यूँ ही ढलती रही ।
उम्र भर दोस्तों मैं तरसता रहा
वो मेरे सामने ही बदलती रही
साथ उम्मीद के जागा मैं रात भर
शाम आकर अजय रोज़ छलती रही
-अजय प्रसाद